रविवार, अगस्त 02, 2009

महीना अगस्त का :- शबनम शर्मा

महीना अगस्त का
आते ही, हवा में सीलन
बदन में तपिश,
और रूह में
कंपनमहसूस होती है,


सीने पत्थरों के
भी पसीजने लगते हैं
रो पड़ते हैं मेरे
घर के सामने वाले
पहाड़ भी,
याद करके उन वीरों को
जिन्होंने हमें ये खुली हवा
में साँस लेने का
सुअवसर दिया,
उन्हें रहती दुनिया तक
मेरा, सम्पूर्ण विश्व का
शत-शत प्रणाम।

माता-पिता की महिमा

माता तो सर्वोच्च है, महिमा अगम अपार!
माँ के गर्भ से ही यहाँ, प्रकट हुए अवतार!!

माँ की महत्ता तो मनुज, कभी न जानी जाय!
माँ का ऋण सबसे बड़ा, कैसे मनुज चुकाय!!

मात-पिता भगवान-से, करो भक्ति भरपूर!
मात-पिता यदि रुष्ट हों, ईश समझलो दूर!!

पिता दिखाए राह नित, दे जीवन का दान!
मान पिता को दे नहीं, अधम पुत्र को जान!!

रोम-रोम में माँ रहे, नाम जपे हर साँस!
सेवा कर माँ की सदा, पूरी होगी आस!!

माँ प्रसन्न तो प्रभु मिलें, सध जाएँ सब काम!
पिता के कारण जगत में, मिले मनुज को नाम!!

मात-पिता का सुख सदा, चाहा श्रवण कुमार!
मात-पिता के भक्त को, पूजे सब संसार!!

माँ के सुख में सुख समझ, मान मोद को मोद!
सारा जग मिल जाएगा, मिले जो माँ की गोद!!

माँ के चरणों में मिलें, सब तीरथ,सब धाम!
जिसने माँ को दुःख दिए, जग में मरा अनाम!!

माँ है ईश्वर से बड़ी, महिमावान अनंत!
माँ रूठे पतझड़ समझ, माँ खुश, मान वसंत!!

बहुत चले हैं बिना शिकायत :- साध्वी कनकप्रभा

बहुत चले हैं बिना शिकायत हम मंज़िल के आश्वासन पर,

लेकिन हर मंज़िल को पीछे छोड़ रहे हैं चरण तुम्हारे,

तपे बहुत जलती लूओं से, रहें नीड़ में मन करता है,

पर नभ की उन्मुक्त पवन में खींच रहे हो प्राण हमारे॥


देख रहे दिन में भी सपने, कितनी सरज रहे हो चाहें,

सदा दिखाते ही रहते हो हमें साधना की तुम राहें,

खोली हाट शान्ति की जब से ग्राहक कितने बढ़ते जाते,

नहीं रहा अनजाना कोई सबका स्नेह अकारण पाते,

बिना शिकायत जुटे हुए हम हर सपना साकार बनाने,

फिर भी तोष नहीं धरती से तोड़ रहे अंबर के तारे॥

बहुत चले हैं बिना शिकायत :- साध्वी कनकप्रभा

बहुत चले हैं बिना शिकायत हम मंज़िल के आश्वासन पर,
लेकिन हर मंज़िल को पीछे छोड़ रहे हैं चरण तुम्हारे,
तपे बहुत जलती लूओं से, रहें नीड़ में मन करता है,
पर नभ की उन्मुक्त पवन में खींच रहे हो प्राण हमारे॥
देख रहे दिन में भी सपने, कितनी सरज रहे हो चाहें,
सदा दिखाते ही रहते हो हमें साधना की तुम राहें,
खोली हाट शान्ति की जब से ग्राहक कितने बढ़ते जाते,
नहीं रहा अनजाना कोई सबका स्नेह अकारण पाते,
बिना शिकायत जुटे हुए हम हर सपना साकार बनाने,
फिर भी तोष नहीं धरती से तोड़ रहे अंबर के तारे॥
बचपन से ले अब तक कितने ग्रन्थों को हमने अवगाहा,
अपनी नाजुक अंगुलियों से जब तब कुछ लिखना भी चाहा,
समय-समय पर बाँधा मन के भावों को वाणी में हमने,
नहीं कहा विश्राम करो कुछ एक बार भी अब तक तुमने,
बहुत पढ़े हैं बिना शिकायत मन ही मन घबराते तुमसे,
कब होंगे उत्तीर्ण तुम्हारी नज़रों में पढ़ पढ़कर हारे॥
हर अशब्द भाव को बाँधा मधुर-नाद में हे संगायक!
मन की प्रत्यंचा पर सचमुच चढ़ा दिया संयम का सायक,
हर मानव की पीड़ा हरकर तुमने उसको सुधा पिलाई,
मुरझाते जीवन के उपवन की मायूसी दूर भगाई,
बहुत जगे हैं बिना शिकायत छोटी- बड़ी सभी रातों में,
बिना जगे कुछ सो लेने दो अब तो धरती के उजियारे!
कदम-कदम पर चौराहे हैं लक्ष्य स्वयं मंज़िल से भटका,
बियावान सागर के तट पर आकर प्राणों का रथ अटका,
जूझ रही है हर खतरे से विवश ज़िंदगी यह मानव की,
कुछ अजीब-सी अकुलाहट देखी जब से छाया दानव की,
डटे हुए हैं बिना शिकायत जीवन के हर समरांगण में,
किन्तु कहोगे कब तुम हमको खड़ी पास में विजय तुम्हारे॥

प्रेरणा की साँस भर देना :- साध्वी कनकप्रभा

प्रेरणा की साँस भर देना थकन में,
चरण मंज़िल से नहीं अब रूठ पाए,
सींचते रहना नयी हर पौध को तुम,
पल्लवों फूलों फलों से लहलहाए॥
तोड़ सपनों को हमें दो सत्य का सुख,
अनकही मन की तुम्हें है ज्ञात सारी,
स्वाति बनकर दुःख को मोती बना दो,
भटकते अरमान दो छाया तुम्हारी,
चाँद सूरज से अधिक ले तेज अपना,
तिमिर- तट पर पूर्णिमा बन उतर आए॥
दीप हर आलोक से मंडित हुआ है,
मुस्कराते हैं गगन में नखत तारे,
एक मूरत गढ़ गया कोई मनोहर,
ज्योति- किरणों ने बिछाई हैं बहारें,
मुग्ध हैं ये प्राण इस अनुपम छटा पर,
मौन मन की धड़कनें कुछ गुनगुनाए॥
स्नेह संवर्षण मिला जब से तुम्हारा,
क्यारियाँ विश्वास की हैं शस्यश्यामल,
ज़िन्दगी को मोड़ दे तुमने बढ़ाए,
साधना की राह पर ये चरण कोमल,
जग निछावर पुण्य चरणों में तुम्हारे,
दीप ये विश्वास के तुमने जलाए॥