शनिवार, नवंबर 26, 2016

YOU CAN WIN : Design a LOGO Competition

www.jainterapanthnews.in

YOU CAN WIN
आप भी बन सकते है सहभागी

Design a LOGO Competition

आप के द्वारा डिज़ाइन किया हुआ लोगो हो सकता है आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष कि पहचान।
अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद् द्वारा आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष के लिए LOGO बनाने कि प्रतियोगिता पूरे भारत में आयोजित कि जा रही है। प्रेक्षा प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी वैज्ञानिक, साधना पुरुष, नई नई सोच के साथ नई नई खोज करने वाले व्यक्तित्व थे। इसलिए हमें कुछ नई सोच के साथ नव इतिहास का निर्माण करना है।

आप अपने स्वयं के द्वारा बनाये गए LOGO (jpeg File) में janmshatabdilogo@gmail.com पर प्रेषित करे उन में से सबसे बेहतरीन LOGO का चयन होगा और चयनित LOGO को पुरस्कृत किया जाएगा।

विजेताओ को मिलेगा

Ist PRIZE NEW APPLE IPHONE
2nd PRIZE LENOVO LAPTOP
3rd PRIZE SAMSUNG TAB

Let your imagination flow, let your creativity show !! Lets design a wonder Logo for the great visionary HH. Acharya Mahapragya ji's Birth Centenary. Last date for sending the design is 12/12/2016

: निवेदक :
अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद्
बी॰सी भलावत               विमल कटारिया
अध्यक्ष                          महामंत्री

: सम्पर्क सूत्र :
नितेश कोठारी : 9367750695
अभिषेक पोखरना : 9829074922

Poster design by :

शनिवार, फ़रवरी 13, 2016

मर्यादा महोत्सव द्वितीय दिवस

तेरापंथ के ग्यारहवें अधिशास्ता,पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी के सानिध्य में मर्यादा महोत्सव
द्वितीय दिवस के कार्यक्रम का हुआ शुभारंभ।



वन्दे गुरुवरम और जय जय ज्योतिचरण से गुंजायमान हुआ पण्डाल



मर्यादा महोत्सव के साक्षी बनने उमड़े हजारों श्रद्धालु 
द्वितीय दिवस के कार्यक्रम में उपस्थित जनसमुदाय



"महाश्रमण दरबार में रहता सदा हर्ष और उल्लास
दर्शन को आतुर श्रावक समाज आता दूर दूर से खास" 



अद्भुत नजारा, अकल्पनीय दृश्य
बिहार के राज्यपाल महामहिम रामनाथ कोबिन्द हुए मर्यादा महोत्सव के कार्यक्रम में सरीक
राष्ट्रगान शुरू होने पर हजारो का जनसमूह ने अपने स्थान पर खड़ा हो कर किया संगान



तेरापंथ सरताज आचार्य श्री महाश्रमण जी के दर्शन करते हुए
मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक पल के साक्षी बनने पधारे
बिहार के राज्यपाल महामहिम श्री रामनाथ कोबिन्द 



152वें मर्यादा महोत्सव के द्वितीय दिवस पर पूज्य प्रवर का मंगल उदबोधन का
महावीर तुम्हारे चरणों में,श्रद्धा के कुसुम चढ़ाएं के साथ शुभारंभ


महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द ने 152वें मर्यादा महोत्सव के अवसर दिया अपना वक्तव्य ।
मर्यादा व अनुशासन के बिना न परिवार चल सकता है, न समाज और न ही राष्ट्र ।
एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह आचार्य महाश्रमण जी ने मानवता को रोशन किया है - महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द।



मर्यादा महोत्सव व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री राजकरण दफ्तरी ने दिया स्वागत भाषण
महामहिम राज्यपाल जी को पटका पहनाकर किया गया स्वागत

जैन विश्वभारती के अध्यक्ष श्री धरम चंद लुंकड ने पुस्तक देकर किया महामहिम राज्यपाल बिहार सरकार का स्वागत




पुनः अद्भुत नजारा, अद्वितीय पल
किशनगंज के मर्यादा समवसरण से लाइव राष्ट्रगान का हुआ पुनः संगान


पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी का अभिवादन करते हुए बिहार के महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द



आचार्य श्री महाश्रमण जी के श्री चरणों में पहुँचे भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता, सह पूर्व सांसद किशनगंज सैयद शाहनावाज हुसैन



तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष श्री कमल जी दुगड़ एवं उपाध्यक्ष श्री किशनजी डागलिया ने किया
महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द का स्वागत ।



152 वें मर्यादा महोत्सव के दूसरे दिन श्री चरणों में पहुचे किशनगंज सांसद सैयद शाहनवाज हुसैन
उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा दुनिया अगर अहिंसा मे विश्वास करे तो दुनिया स्वर्ग बन जाए ।




गुवाहाटी श्रावक समाज पहुँचा श्री चरणों में।


पूज्य प्रवर के मंगलपाठ के उदबोधन के साथ मर्यादा महोत्सव द्वितीय दिवस का कार्यक्रम हुआ सम्पन्न ।

शनिवार, जनवरी 17, 2015

Bhaktamar Stotra

भक्तामर

भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्।
सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा-
वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥

य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:।
स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ!
स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥

वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध ्या ।
कल्पान्त -काल - पवनोद्धत- नक्र- चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥

सोऽहं तथापि तव भक्ति - वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत - शक्ति - रपि प्रवृत्त:।
प्रीत्यात्म - वीर्य - मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥

अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:॥ 6॥

त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त - लोक - मलि -नील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥ 7॥

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, -
मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल - द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥ 8॥

आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ 9॥

नात्यद्-भुतं भुवन - भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त - मभिष्टुवन्त:।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ 10॥

दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष - विलोकनीयं,
नान्यत्र - तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:।
पीत्वा पय: शशिकर - द्युति - दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 11॥

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक - ललाम-भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 12॥

वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष- निर्जित - जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलङ्क - मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥13॥

सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क - कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास् - त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास् - त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥

चित्रं - किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार - मार्गम्््् ।
कल्पान्त - काल - मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15॥

निर्धूम - वर्ति - रपवर्जित - तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय - मिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥ 16॥

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति।
नाम्भोधरोदर - निरुद्ध - महा- प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥

नित्योदयं दलित - मोह - महान्धकारं,
गम्यं न राहु - वदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्ज - मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बि्बम्॥ 18॥

किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ!
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु।
तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि॥ 20॥

मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21॥

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्।
त्वामेव सम्य - गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥

त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर - मनन्त - मनङ्ग - केतुम्।
योगीश्वरं विदित - योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥

तुभ्यं नमस् - त्रिभुवनार्ति - हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय।
तुभ्यं नमस् - त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै - रुपात्त - विविधाश्रय-जात-गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥

उच्चै - रशोक- तरु - संश्रितमुन्मयूख -
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥

सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस - दंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥

कुन्दावदात - चल - चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्।
उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर - वारि -धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥

छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त-
मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्।
मुक्ता - फल - प्रकर - जाल-विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥

गम्भीर - तार - रव-पूरित-दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य - लोक -शुभ - सङ्गम -भूति-दक्ष:।
सद्धर्म -राज - जय - घोषण - घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32॥

मन्दार - सुन्दर - नमेरु - सुपारिजात-
सन्तानकादि - कुसुमोत्कर - वृष्टि-रुद्घा।
गन्धोद - बिन्दु- शुभ - मन्द - मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33॥

शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक - त्रये - द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर - भूरि -संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34॥

स्वर्गापवर्ग - गम - मार्ग - विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म- तत्त्व - कथनैक - पटुस्-त्रिलोक्या:।
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥ 35॥

उन्निद्र - हेम - नव - पङ्कज - पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिराौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36॥

इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् - जिनेन्द्र्र !
धर्मोपदेशन - विधौ न तथा परस्य।
यादृक् - प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥

श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-ूल,
मत्त- भ्रमद्- भ्रमर - नाद - विवृद्ध-कोपम्।
ऐरावताभमिभ - मुद्धत - मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38॥

भिन्नेभ - कुम्भ- गल - दुज्ज्वल-शोणिताक्त,
मुक्ता - फल- प्रकरभूषित - भूमि - भाग:।
बद्ध - क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥ 39॥

कल्पान्त - काल - पवनोद्धत - वह्नि -कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल - मुत्स्फुलिङ्गम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख - मापतन्तं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥ 40॥

रक्तेक्षणं समद - कोकिल - कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन - मुत्फण - मापतन्तम्।
आक्रामति क्रम - युगेण निरस्त - शङ्कस्-
त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥ 41॥

वल्गत् - तुरङ्ग - गज - गर्जित - भीमनाद-
माजौ बलं बलवता - मपि - भूपतीनाम्।
उद्यद् - दिवाकर - मयूख - शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42॥

कुन्ताग्र-भिन्न - गज - शोणित - वारिवाह,
वेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे।
युद्धे जयं विजित - दुर्जय - जेय - पक्षास्-
त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43॥

अम्भोनिधौ क्षुभित - भीषण - नक्र - चक्र-
पाठीन - पीठ-भय-दोल्वण - वाडवाग्नौ।
रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान - पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥ 44॥

उद्भूत - भीषण - जलोदर - भार- भुग्ना:,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:।
त्वत्पाद-पङ्कज-रजो - मृत - दिग्ध - देहा:,
मत्र्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥ 45॥

आपाद - कण्ठमुरु - शृङ्खल - वेष्टिताङ्गा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट - जङ्घा:।
त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति॥ 46॥

मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज - दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर - बन्ध -नोत्थम्।
तस्याशु नाश - मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते॥ 47॥

स्तोत्र - स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥ 48

मंगलवार, मई 20, 2014

UPASHAK

Description

The members of the society are settled in far flung areas. Whilst Saints (Sadhu, Sadhvi, Saman and Samani) cover a large number of centres, still a lot of areas remain uncovered. This gap is filled by the trained UPASAKS, who travel to designated areas particularly during PARYUSHAN festival and conduct the... religious programmes for the benefit of the society.

The selected UPASHAK are required to undergo rigorous training and tests through Upasak Training Camp which JAIN SWATEMBER TERAPANTHI MAHASABHA organise every year under the auspicious guidance of Acharya Shri Mahashraman.

Upasak in Terapanth


Terapanth organisation is blessed by the spiritual guidance by yugpradhan acharya Sh. Mahapragya Ji. Here hundreds of Sadhu-Sadhvi, Saman-Samani are doing Sadhna. They go for chaturmas or travelling to different regions as per instructions of Acharaya Ji. But still the demand by the regions for chaturmas cannot be supplied.

Paryushan-Samvatsari is a great spiritual festival of Jainism. On this holy occasion devotee expect inspiration and guidance for performing Dharma. where ever Sadhu-Sadhvi are availaible on this moment, their guidance and support is taken. But regions where there are no Sadhu-Sadhvi, Saman-Samani or mumukshu behan there it was expected to nominate upasak (Trained Shravak-Shravika) to accomplish this task. To support somebody in spiritual practice is a task of self spiritual development and benevolence. As to eligibility preface of Upasak and for its regular survival a plan was designed. It is like this -

Who is Upasak ?


A trained shravak or shravika who could perform spiritual Discourses and Practices etc. to the people to the instructed place in Paryushan or other occasions. Upasak-mandal is group of upasaks.


The process to become an Upasak
One who has been trained in Upasak-shivir can only be defined as Upasak. This shivir is held for 9 days. Generally it is held during August-September . Place and time are informed whenever it is suitable.

The eligibility for entrance in Upasak-shivir
Generally a person can join this shivir in following conditions -
* One who is reverent to terapanth-organization.
* One who believes in Sanyam and simplicity.
* One who is generally hard-working and healthy.
* One who has the ability of oratory or such potential.
* Who could generally devote 2-3 weeks time for instructed work at any place.
* One who is not more than 65 years old or he must already trained.
* One who has atleast by-heart 25 bol and kaalu tatva shatak।


Thanx for Upashak Sri Munish Jain
PANKAJ DUDHORIA
09339514474