बुधवार, नवंबर 17, 2010
रविवार, नवंबर 14, 2010
कैसे बाल-दिवस मनाऊ मैं ?
रविवार, नवंबर 07, 2010
About Acharya Shree Mahasraman Ji
Glorious in peace, sharp in silence, humble in learning and speciality in simplicity is the brief introduction of 36 years old Yuvacharya Shree Mahasraman previously known as Mahasraman Muni Mudit. He possesses an extraordinary genius and minute insight and intuition. Extreme gentleness and complete dedication are the important features of his singular personality. Due to extraordinary characteristics Muni Mudit leaded many old monks in the Terapanth sect and became Mahasraman at the age of 28 years. He is like a gem with broad scientific and rational outlook. In 1997 at the age of 35 years he became the "Yuvacharya" successor designate to the present Acharya, the second highest position after the Acharya himself.
This noble soul and great thinker was born in 1962 at Sardarsahar, a small town in Rajasthan. At the age of 12 years he became a monk. Under the able guidance of Acharya Tulsi and Acharya Mahaprajna, he got his education and proved himself as an ardent disciple. He possesses the qualities of a scholar, writer, brilliant speaker, meditator and impressionable personality. He also guides the youth wings of Terapanth morally and emotionally.
मंगलवार, अक्टूबर 05, 2010
आचार्य महाप्रज्ञ जी की कविताये
वर्तमान उज्ज्वल करना है
विस्मृत कर दो कुछ अतीत को, दूर कल्पना को भी छोड़ो
सोचो दो क्षण गहराई से, आज हमें अब क्या करना है
वर्तमान की उज्ज्वलता से भूत चमकता भावी बनता
इसीलिए सह-घोष यही हो, ‘वर्तमान उज्ज्वल करना है’
हमने जो गौरव पाया वह अनुशासन से ही पाया है
जीवन को अनुशासित रखकर, वर्तमान उज्ज्वल करना है
अनुशासन का संजीवन यह, दृढ़-संचित विश्वास रहा है
आज आपसी विश्वासों से, वर्तमान उज्ज्वल करना है
क्षेत्र-काल को द्रव्य भाव को समझ चले वह चल सकता है
सिर्फ बदल परिवर्तनीय को, वर्तमान उज्ज्वल करना है
अपनी भूलों के दर्शन स्वीकृति परिमार्जन में जो क्षम है
वह जीवित, जीवित रह कर ही, वर्तमान उज्ज्वल करना है
औरों के गुण-दर्शन स्वीकृति अपनाने में जो तत्पर है
वह जीवित, जीवित रह कर ही, वर्तमान उज्ज्वल करना है
दर्शक दर्शक ही रह जाते, हम उत्सव का स्पर्श करेंगे
परम साध्य की परम सिध्दि यह, वर्तमान उज्ज्वल करना है
कविता की क्या परिभाषा दूँ
कविता की क्या परिभाषा दूँ
कविता है मेरा आधार
भावों को जब-जब खाता हूँ
तब लेता हूँ एक डकार
वही स्वयं कविता बन जाती
साध्य स्वयं बनता साकार
उसके शिर पग रख चलता हूँ
तब बहती है रस की धार
अनुचरी बन वह चलती है
कभी न बनती शिर का भार
अनुचरी है नहीं सहचरी
कभी-कभी करता हूँ प्यार
थक जाता हूँ चिंतन से तब
जुड़ जाता है उससे तार
प्रासाद का सिर झुक गया है
झोंपड़ी के सामने प्रासाद का सिर झुक गया है
झोंपड़ी के द्वार पर अब सूर्य का रथ रुक गया है
राजपथ संकीर्ण है, पगडंडियां उन्मुक्त हैं
अर्ध पूर्ण विराम क्यों जब वाक्य ये संयुक्त हैं
शब्द से जो कह न पाया मौन रहकर कह गया है
कौन मुझको दे रहा व्यवधान मेरे भ्रात से ही
दे रहा है कौन रवि को अब निमंत्रण रात से ही
शून्य में सरिता बहाकर पवन नभ को ढग गया है
श्रमिक से श्रमबिन्दु में निर्माण बिम्बित हो रहा है
बिन्दु की गहराइयों में सिन्धु जैसे खो रहा है
उलझती शब्दावली में सुलझता चिन्तन गया है