शुक्रवार, मई 15, 2020

सिद्ध और बुद्ध

पिछले दिनों वैशाख शुक्ला दशमी के दिन कई वर्ष पूर्व भगवान महावीर को सिद्धत्व की प्राप्ति हुई व वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को भगवान बुद्धबुद्धत्व को प्राप्त हुए। वैसे तो दोनों शब्दों में कोई लंबा फर्क नहीं है।सिद्ध और बुद्ध दोनों ही करीब-करीब समानार्थी शब्द है। 

भगवान महावीर और बुद्ध दोनों ही करीब करीब समकालीन है,समकालीन ही नहीं दोनों भारत भूमि के उसी एक ही क्षेत्र से आते हैं जो वर्तमान में बिहार है और दोनों का अधिकतर विहार क्षेत्र भी वहीं रहा। चाहे राजगृह हो, चाहे नालंदा, चाहे वैशाली हो, चाहेमगध, चाहे पाटलिपुत्र। उनके अधिकतर चातुर्मास व विरहण इसी क्षेत्र में हुए। दोनों राजकुमार थे। दोनों ने विवाह किया। भगवान महावीर के पुत्री हुई है, एसा श्वेतांबर संप्रदाय मानता है और भगवान बुद्ध के 1 पुत्र था। भगवान महावीर और बुद्ध दोनों ही यौवन काल में घर गृहस्थी छोड़ के, राजमहल त्याग के, सन्यास की ओर मुड़े। सन्यास जीवन में ध्यान और तप कर आगे बढ़े। सिद्ध और बुद्ध बने दोनों ने श्रमण संस्कृति को आगे बढ़ाया।

कहा यह जाता है उस जमाने में करीब आठ-नौ लोग अपने आपको तीर्थंकर कहा करते थे और सब के सैकड़ों शिष्य बनाए थे। बुद्ध वमहावीर के भी थे और आज अढ़ाई-तीन हज़ार वर्ष बाद केवल बुद्ध व और महावीर का नाम रह गया। लोग भूल गए पुण्य कश्यप को,अजीत केश काबली को या मैं बात करूं मंखली पुत्र गौशालक की व प्रबुद्ध कात्यायन की, सबके अपने-अपने दर्शन थे और उन दर्शन के आधार पर ही इन सब का एक विभाजक रेखा बनी हुई थी।

लेकिन महावीर और बुद्ध तब से आज तक अपनी परंपरा के अनुसार चले आ रहे हैं और श्रमण संस्कृति के पुरोधा के रूप में दोनों की एक अपनी पहचान भारतीय संस्कृति में सदा के लिए अंकित है। दोनों महापुरुष एक ही महीने में सिद्ध - बुद्ध बने। एक ही समय में एक ही क्षेत्र में बिचरण किया और उन्हीं राजाओं को जो कि हिंसक थे,उन्हें अहिंसा का पाठ पढ़ाया। चाहे बिंबिसार, श्रेणिक हो, उदयन हो, चंड-प्रद्योत, इन सब राजाओं को उन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा अनुयायी बनाया और अपनी शिक्षाएं उन्हें दी। हजारों लाखों लोगों को जीवन में अहिंसा का पाठ पढ़ाया, अपरिग्रह बताया और अपने संघ का अनुयायी बनाया।

मैं यहां उल्लेख करना चाहूंगा मेरे पापा जी की एक कविता का जहां उन्होंने बताया है

गंगा तो है एक, उसके घाट हैं अनेक,
हर घाट में कूदकर, व्यक्ति पा सकता है, असीम प्रभाह
और डुबकी लगाकर, पूरी कर सकता, निर्मल बनने की चाह
इसी तरह सत्य और अस्तित्व की गंगा से,
जो होना चाहता एकाकार
संकल्प और श्रम के तीर्थ से छलांग भरकर
जो पावन हो, उतरना चाहता उस पार
उसके लिए, तुमने श्रमण संस्कृति के तीर्थ का किया नवनिर्माण
तपोनिष्ठ ध्यान योगी बनकर, कहलाए तुम तीर्थंकर महान।

महावीर ने जहां पांच महाव्रत बताएं बुद्ध ने वही अष्टयाम धर्म बताया। महावीर के बात को गौतम और सुधर्मा ने आगे बढ़ाया, बुद्ध की बात को आनंद आदि शिष्य ने आगे बढ़ाया। वैसे कई विदेशी लेखक दोनों को एक मानते हैं क्योंकि उन्हें इनके इतिहास की, इनके परिवार की, इनके परिवेश की जानकारी नहीं है लेकिन दोनों का एक अपना अपना अलग-अलग महत्व है और अलग-अलग दर्शन है। कई बातें जैन धर्म मानता है वह बौद्ध धर्म नहीं मानता। बौद्ध धर्म में आत्मा का इतना महत्व नहीं है;जैन धर्म आत्मकृतत्ववाद के आधार पर ही आधारित रखता है।

यहाँ ऐसा भी कहा जाता है भगवान महावीर और बुद्ध आपस में कभी मिले या नहीं मिले, बहुत बड़ा प्रश्न है? दोनों समकालीन थे, क्षेत्र एक ही था और दोनों का मिलन क्यों नहीं हुआ, जब मिलन हुआ तो उसके बारे में कहीं कोई बात ना आगमों में आती है न ही त्रिपिटक  मेंआती है।

मेरे पिता श्री ने इस पर भी एक कविता के माध्यम से अपनी बातकही है कि

यही सही है कि कभी मिले नहीं बुद्ध और महावीर
और यह भी सही है कि उनके अंदर जागृत चेतन एक सा था
यद्यपि उनके अलग से शरीर
वे भी मिल लेते तो अलग दिखता न आकार
और अलग रहे तो भी उनका रहा एक ही प्रकार
मिलने पर केवल हृदय बोलता मौन हो जाता वचन
अंतर में दोनों के प्रभावित हो रहा था एक सा ज्योतिर्मय जीवन
ज्ञानियों के बीच बात हो सकती है पर होती न कभी
और अज्ञानी बात कर नहीं सकते पर बहुत बोलते सभी
दोनों का असीम केवल-ज्ञान शब्दों में होता नहीं आबद्ध
और उनकी अपूर्व मुक्त चेतना तन में रही नहीं प्रतिबद्ध
यह तथ्य है कि कभी मिले नहीं उनके तन
और यह सत्य है कि मिलता रहा
सदा सर्वदा उनका जागृत चेतन।

ऐसे दोनों प्रणम्य पुरुषों को मैं प्रणाम करता हूं और भारतीय संस्कृति के इन दोनों पुरोधाओं को जिन्होंने हमें जीवन जीने की कला में नवीनता बताइए और हमें साधना के आधार पर जीवन को जीना सिखाया है। हमें इनके बारे में पढ़कर अपने जीवन मैं सार्थकता लानी है। इन्हें भी समझना है, जानना है, पढ़ना है और आने वाली पीढ़ी को इनके बारे में बताना है। बता तभी पाएंगे जब हम स्वयं जानेंगे अन्यथा कोरे रह जाएंगे। मानव जीवन मिला है कोरा ना रहे और कुछ ना कुछ आध्यात्मिकता जीवन में जरूर रहे। यही बुद्ध व महावीर ने सिखाया यही समझाया है।


रचनाकार: श्री मर्यादा कुमार कोठारी, (आप युवादृष्टि, तेरापंथ टाइम्स के पूर्व संपादक, अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष , अणुव्रत महासमिति के राष्ट्रीय महामंत्री रह चुके हैं।)


गुरुवार, मई 07, 2020

हे "महाप्रज्ञ" पट्टधारी जय हो




जन्म लिया "मोहन" बनकर,
"मुदित" बने, ले दीक्षा तुम ।
हे "महाप्रज्ञ" पट्टधारी जय हो,
"महाश्रमण" लो अभिनंदन तुम ।।

झूमर नेमा के हो नन्दन,
कुल "दुगड़" बड़भागी है ।
जन्म लिया सरदारशहर में,
धन्य हुई यह माटी है ।।

"तुलसी" गुरु की कृपा पाई,
संयम रत्न का मिला वरदान ।
चतुर्दशी वैशाख शुक्ल दिन,
अध्यात्म "सुमेर" चढ़े सौपान ।।

"तुलसी-महाप्रज्ञ" की प्रतिकृति,
हे महाश्रमण ! अभिनंदन ।
मुदित भाव से दीक्षा दिवस पर,
हे ज्योतिचरण ! तुम्हें करते वंदन ।।

रचनाकार : श्री पवन फुलफगर, संपादन टीम सदस्य, भातेयुप जैन तेरापंथ न्यूज

बुधवार, मई 06, 2020

आराध्य के प्रति भावों की अभ्यर्थना


बालक मोहन सरदारशहर दुगड़ कुल के अद्भुत , विलक्षण , रत्न अनमोल,
गुरु तुलसी आज्ञा से मुनि सुमेर ने दी दीक्षा, सीखे प्रभु आध्यात्म के बोल।

12 वर्ष की अल्प आयु में मोहन से मुनि मुदित बन संयम यात्रा हुई प्रारंभ,
गुरु - आज्ञा को आत्मधर्म मान, सहज, समर्पण, निष्ठा से शिक्षा हुई आरंभ।

छोटा कद था पर संकल्प फौलादी , लक्ष्य बड़े लेकर बढ़ते थे प्रभुवर के चरण,
राग विराग के भावों से ऊपर उठकर बन गए मुनि मुदित से आप महाश्रमण।

गौर मुखमंडल को जब जब देखा, सहज मुस्कान की मिलती छाया शीतल,
प्रवचन की धारा इतनी निर्मल जैसे कल कल बहता हो गंगा का अमृत जल।

सर्दी-गर्मी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में भी महातपस्वी को सदा सम देखा,
तुलसी - महाप्रज्ञ का रूप जय जय ज्योतिचरण, जय जय महाश्रमण में है देखा।

दीक्षा दिवस के अवसर पर तेरापंथ सरताज को जन जन शुभ भावों से बधाता है
तेरी दृष्टि में मेरी सृष्टि रहें सदा "पंकज" अपने भगवान की गौरव गाथा गाता है।