यह आलेख मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा जी द्वारा 01 नवंबर 2020 को 'भिक्षु सभागार' में दिए गए प्रवचन पर आधारित है। इस प्रवचन का मुख्य विषय "व्यक्तित्व विकास के सुनहरे सूत्र" है।
व्यक्तित्व विकास के सुनहरे सूत्र
प्रस्तावना: जीवन की अभिलाषा
संसार के सभी जीव जीने की इच्छा रखते हैं; मृत्यु का वरण कोई नहीं करना चाहता। जैसा कि भगवान महावीर ने दशवैकालिक सूत्र में कहा है—"सब्बे जीवा इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं"। वेदों में भी 100 वर्ष तक स्वस्थ जीने, सुनने और देखने की कामना की गई है। प्रश्न यह है कि यह जीवन कैसा हो? हर व्यक्ति चाहता है कि उसका व्यक्तित्व आकर्षक हो और उसकी सराहना की जाए।
1. व्यक्तित्व का आधार: धन नहीं, व्यवहार
अक्सर लोग मानते हैं कि अधिक धन से व्यक्तित्व प्रभावशाली बनता है, परंतु यह सत्य नहीं है। आदरणीया मुख्य नियोजिका जी ने दो बहनों के उदाहरण से इसे स्पष्ट किया:
- एक धनाढ्य युवती जिसके पास महंगी ज्वेलरी और फोन है, यदि वह किसी से अहंकारपूर्वक बात करती है, तो उसका व्यक्तित्व आकर्षक नहीं लगेगा [13:00]।
- वहीं एक सामान्य युवती जो शालीनता और विनम्रता से बात करती है, उसे हर कोई सम्मान देता है। अतः व्यक्तित्व का वास्तविक आधार हमारा व्यवहार है, धन नहीं [14:16]।
2. व्यक्तित्व के प्रकार
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्तित्व के मुख्य रूप इस प्रकार हैं:
- बाह्य व्यक्तित्व (Extrovert): रहन-सहन, खान-पान और वातावरण पर आधारित।
- आंतरिक व्यक्तित्व (Introvert): यह दो प्रकार का होता है। एक कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) पर आधारित, जो किसी को प्रिय नहीं लगता। दूसरा गुणों (करुणा, प्रेम, ईमानदारी, सेवा) पर आधारित, जो हर किसी को आकर्षित करता है [17:15]।
- तेजस्वी व्यक्तित्व (Brightening Personality): वह व्यक्तित्व जो गुणों के कारण दमकता है।
3. व्यक्तित्व निर्माण: एक दीर्घकालिक साधना
एक चीनी कहावत के अनुसार, भवन निर्माण में एक वर्ष और वृक्ष लगाने में दस वर्ष लगते हैं, परंतु एक व्यक्ति के निर्माण में सौ वर्ष (पूरा जीवन) लग सकते हैं। यह कार्य श्रमसाध्य है [22:44]। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इसी दिशा में कार्य करते हुए ऐसे साधु और श्रावक तैयार किए जो संघ की निस्वार्थ सेवा कर सकें [23:46]।
4. भगवान महावीर के 'व्यक्तित्व विकास' के सूत्र
आधुनिक 'पर्सनालिटी डेवलपमेंट' की कक्षाएं आज शुल्क लेकर जो सिखाती हैं, वह भगवान महावीर ने सदियों पहले मेघ कुमार को संयम के रूप में सिखाया था [26:43]:
- संयमपूर्वक चलना (जयं चरे): अहिंसक दृष्टि रखकर चलना। चलते समय मन विचारों से खाली हो और ध्यान केवल गमन पर हो [29:11]।
- संयमपूर्वक खड़े रहना (जयं चिट्ठे): खड़े होने का पोस्चर सही हो। केवल गर्दन मोड़ने के बजाय पूरे शरीर को मोड़कर देखना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम है [30:51]।
- संयमपूर्वक सोना (जयं सये): सोने में भी जागरूकता हो ताकि किसी जीव की हिंसा न हो और शरीर का पोस्चर न बिगड़े [33:09]।
- संयमपूर्वक खाना (जयं भुंजंतो): केवल स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए खाना। ऋतु के अनुसार सात्विक भोजन का चयन करना और अपनी जठराग्नि के अनुसार मात्रा का विवेक रखना [36:20]।
- संयमपूर्वक बोलना (जयं भासंतो): सीमित और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग। मौन की महत्ता को समझना [38:22]।
5. मौन और वाणी का संयम
महान व्यक्तित्वों ने मौन को अपनाया है। बर्टन रसेल और उनके मित्र का उदाहरण देते हुए बताया गया कि वे 30 साल तक साथ रहे पर वाणी का अपव्यय नहीं किया [40:58]। वर्तमान में आचार्य महाश्रमण जी भी इसी वाणी संयम के आदर्श हैं, जो अक्सर अपनी मुस्कुराहट या सिर हिलाकर ही उत्तर दे देते हैं, व्यर्थ नहीं बोलते [42:01]।
निष्कर्ष:
यदि हमें अपने व्यक्तित्व को गुणात्मक, आकर्षक और महनीय बनाना है, तो हमें अपनी हर क्रिया—चलने, बैठने, सोने, खाने और बोलने—में संयम के तत्व को जोड़ना होगा [43:12]।
यह आलेख जीवन को गुणों के आधार पर संवारने का एक मार्ग प्रशस्त करता है।
