वक़्त करता कुछ दगा या तुम दगा करते कभी
साथ चलते और तो हम भी बिछड़ जाते कभी
आजकल रिश्तों में क्या है , लेने देने के
सिवाखाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
थक गये थे तुम जहाँ वो आख़िरी था इम्तिहा
दो कदम मंज़िल थी तेरी काश तुम चलते कभी
दो कदम मंज़िल थी तेरी काश तुम चलते कभी
कुरबतें ज़ंज़ीर सी लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज़ृ में जलते कभी
कल सिसक के हिन्दी बोली ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
आजकल मिट्टी वतन की रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी
श्रद्धा जैन
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