रविवार, सितंबर 05, 2010

सिर्फ रस्म अदायगी का नहीं, सौंदर्य को निखारने का महापर्व है क्षमापना

सही मायने में देखा जाये तो क्षमापना पर्व आज सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रहगया है, विरले ही होंगे, जो वास्तव में क्षमा याचना करते होंगे और क्षमादान देते होंगे, वरना आम तौर पर तो क्षमापना महापर्व के दिन भी कटुता और तुच्छ अहंकार का वातावरण स्पष्ट देखा जा सकता है। यह जगत् विदित तथ्य है कि जीवन में बहुत कम पल ऐसे आते हैं, जब व्यक्ति वास्तव में सर्वांग सुन्दर लगता है। मेरा मानना है कि पूरे समर्पण भाव के साथ क्षमापना करते हुए और सारी तुच्छताओं को त्याग कर क्षमादान करने की इन दो स्थितियों में ही इंसान सबसे सुंदर लगता है। बच्चे इतने सुंदर इसीलिए होते हैं क्योंकि उनमें कोई कुटिलता और तुच्छता नहीं होती, वे बिल्कुल निर्दोष लगते है। इसीलिए वे सुंदर होते हैं, मगर हमारे मन की कुरूपता हमें सुन्दर नहीं बनने देती। एक बार समर्पित होकर क्षमापर्व को हमें मनाने की जरूरत है। बहुत कम लोग इस बात को महसूस कर पाए होंगे कि क्षमा मांगने और देने में अहंकार और तुच्छता ये दोनों बुराईयां ही बाधक हैं। हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि किसी को भी माफ कर देना या क्षमा कर देना किसी भी धर्म में सर्वोपरि तत्व है, लेकिन फिर भी हमारा अहंकार किसी से क्षमा मांगने में आड़े आ जाता है, और हमारी तुच्छता किसी को क्षमा करने में बाधक साबित होती है। जिसमें दया है, करूणा है, किसी की भावनाओं को समझने की क्षमता है और जो उदार मन वाले हैं, वे ही किसी को क्षमा कर सकते हैं। अगर हम किसी को क्षमा नहीं कर पाएं, तो मान लीजिए कि हम तुच्छ हैं। हमसे अगर कोई भूल हो जाए, तो हमारा पहला प्रयास यही रहता है कि हमें क्षमादान मिल जाए, लेकिन अगर हमें क्षमादान न मिले तो हमारी क्या स्थिति होती है। अगले की तुच्छता की वजह से कितनी मानसिक यंत्रणा से हमें गुजरना पड़ता है। ठीक इसी तरह अगर हम क्षमा मांग पाएं, तो अपने अहंकार को टटोलिए, वह हावी होताहै, तभी हम्म नहीं मांग पाते हैं। पृथ्वी लोक के किसी भी धर्म और किसी भी संप्रदाय में क्षमा को सबसे महान बताया गया है। कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।

कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।

आत्म शोधन का महापर्व है पर्युषण

पर्यूषण महापर्व आठ दिनों तक मनाया जानेवाला आध्यत्मिक पर्व है। हमारी संस्कृति में आठ की संख्या का बड़ा महत्व है - अष्ट मंगल, अष्ट कर्म, अष्ट सिद्धि, अष्ट बुद्धि, अष्ट प्रवचन माता आदि। अतः पर्यूषण महापर्व भी अष्ट दिवसीय होता हैं। नदियों में गंगा, शत्रुंजय तिर्थों में, पर्वतों में सुमेरु, मंत्रों में नवकार, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में उत्तमहंस, कुल में ऋषभदेव - वंश, तप में मुनियों का तप, उसी प्रकार पर्वों में पर्यूषण पर्व सर्वश्रेष्ठ है। अतः यह महापर्व कहलाता हैं। यद्यपि जैन धर्म के सभी पर्व महत्वपूर्ण हैं, परन्तु पर्वाधिराज का पद तो पर्यूषण पर्व को ही दिया गया है। पर्यूषण पर्व हमको मोह निद्रा में से जगाता है। पर्यूषण के आरंभ के सात दिवस साधना के होते है एवं अंतिम संवत्सरी का दिवस सिद्धि का दिवस है। यह महापर्व मनुष्य को सचेत करनेवाला एवं मोक्ष प्राप्त करानेवाला हैं। यदि ऐसे पवित्र पर्व में भी मोक्ष का प्रामाणिक प्रयत्न करने से चूक गए तो मनुष्य - जन्म व्यर्थ चला जायेगा। पर्यूषण पर्व प्रायश्चित का पुनित अवसर है।

मोह, माया, राग, द्वेष एवं आशक्तियां मनुष्य को जाने-अनजाने पापकर्म के लिए प्रवृत्त करती है। अध्यात्म पर्व हमको इनमें से अनावृत्त होने की प्रेरणा देता हैं। जीव मात्र के प्रति मैत्रीभाव एवं करुणा भाव द्वारा हृदय को निर्मल बनाने की भावना प्राप्त करने की प्रेरणा ऐसे अध्यातम पर्व प्रदान करते हैं। पर्यूषण ऐसे अध्यात्म पर्व प्रदान करते हैं। पर्यूषण को पर्वाधिराज या महापर्व इसलिए कहा जाता है कि इस पर्व की दृष्टी अध्यात्मोन्मुखी है। इस पर्व में विशुद्ध आत्मभाव-वीतराग भाव की साधना की जाती हैं। पर्यूषण पर्व का मुख्य ध्येय और लक्ष्य यही है कि आत्मा को पवित्र बनाकर उसमें सद्गुणों का बाग लगाना। मानव शरीर मात्र ही नही है, किन्तु आत्मा है। शरीर तो आत्मा के ऊपर लिबास मात्र है। आत्मा को पवित्र करना ही मानव जीवन का सार हैं। वस्तुतः पर्यूषण पर्व का प्रायोजन आत्मा को निर्मल और स्वाधीन बनाना हैं। मन और बुद्धि को अहंकार, ममकार, काम, क्रोध, मोह आदि की मलिनता से हटाकर उन्हे परिमार्जित करके पुनः अपने लक्ष्य की ओर, आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति की ओर लगान हैं, अपनी आत्मा की उन्नति करनी हैं। इस प्रकार आत्मशुद्धि के साथ-साथ अपने आत्मिक विकास एवं आत्मोन्नति का सही लेखा - जोखा करना इस पर्व का उद्देश्य हैं। यह पर्व मनाया ही इसलिए जाता है कि आत्म - जागरण हो, आत्म - स्फुरणा हो। यह आत्म जागृति का पर्व हैं। इसलिए जैन जगत में इसका अत्याधिक महत्व हैं। साथ ही यह विश्व मैत्री का प्रेरक होने से संसार का एक मात्र अनूठा पर्व है।


http://paryushan.shatabdigaurav.com/aatam-shodhan.html

पर्यूषण पर्व अष्टान्हिका महोत्सव क्यों?

पर्युषण शब्द की परिभाषा व व्याख्या विभिन्न आचार्यों, साधु-साध्वियों ने विभिन्न विभिन्न रुप से की है। पर्युषण शब्द का सन्धि-विच्छेद करते हुए परि*उषण। परि का मतलब होता है चारों ओर से, सब तरफ से तथा उषण का अर्थ है दाह। जिस पर्व में कर्मों का दाह। विनाश किया जाये वह पर्यूषण शब्द के पर्यायवाची १) पज्जुसणा २) पज्जोसमणा ३) पज्जोसवणा ४) परिजुसणा ५) परिवजणा ६) पज्जुवासणा ७) परियाय ठवणा ८) पज्जूसण । पर्यूषण पर्व जैन धर्म का महान पर्व है। इस महान पर्व में सभी जैन श्रावक-श्राविकाएंं छोटे-छोटे बच्चे भी तपश्चर्या, व्रत, जप, आराधना करते हैं। अपने शरीर, मन, आत्मा को शुद्ध करने का महान पर्व पर्युषण पर्व है। संवत्सरी के दिन प्रतिक्रमण कर अपने व्यवहार, कर्म, बोलचाल आदि से हुई। असातना गलतियों के लिए प्राणीमात्र से क्षमा याचना करते हैं। पर्यूषण पर्व आठ दिन का होता है, इसलिए इसे आष्टान्हिक पर्व भी कहा गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि जैन धर्म का यह प्रमुख पर्व पर्युषण महापर्व आठ दिनों का ही क्यों निर्धारित किया गया है।

सात, नौ या अन्य दिनों का क्यों नहीं तो उसका उत्तर है कि- हमारी आत्मा के आठ प्रमाद है।
१) अज्ञान
२) संशय
३) मिथ्या ज्ञान
४) राग
५) द्वेष
६) स्मृति (स्मृति-भ्रंश)
७) धर्म-अनादर,
८) योग
दुष्परिणाम। में फंसी हुई आठ मद
१) जाति
२) कुल
३) बल
४) रुप
५) तप
६) लाभ
७) श्रुत
८) ऐश्वर्य,
ऐश्वर्य के कारण ८ कर्म -
१) ज्ञानावरणीय
२) दर्शनावरणीय
3) वेदनीय
४) मोहनीय
५) आयु
६) नाम
७) गौत्र
८) अनाराम- से आवृत्त होकर अपनी सच्ची अलौकिक शक्ति तथा ज्ञान को खोती चली जा रही है।

जब तक हर मानव आठो प्रमादों, मद और कर्म से स्वयं को परे नहीं रखेगा, इनका त्याग नहीं करेगा, तब तक उसे सच्चा ज्ञान और सच्चा दर्शन होना दुर्लभ है। इसीलिए पर्यूषण महापर्व क्रमशः इन्हीं आठ विकारों से आत्मा को परिमुक्त करने हेतु आठ दिन तक मनाया जाता है। आठ विकारों के नाश के पश्चात् ही आठ आत्मगुण - १) अनन्त ज्ञान २) अनन्त दर्शन ३) अनन्त सुख ४) अनन्त चरित्र ५) अटल अवगाहन ६) अमूर्तिक ७) अगुरु लघु ८) अनन्त बलवीर्य की प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययन सूत्र ११ (४-५) में आठ बातें बतलायी गयी है, जिनका यदि पर्यूषण पर्व में अभ्यास किया जाए तो जीवन में नया प्रकाश व नई चेतना की स्फूरणा हो सकती है।
१) शांति
२) इन्द्रिय दमन
३) स्वदोष दृष्टि
४) सदाचार
५) ब्रह्मचर्य
६) अलो लुप्ता
७) अक्रोध
८) सत्याग्रह।
आठ विकारों को नाश करने के लिए आठ शिक्षाएं आठ शील के गुम, आठ प्रवचन माता की आज्ञा से देव, गुरु, धर्म एवं ५ व्रत इन आठ का श्रद्धापूर्वक आचरण करने के लिए अरिहन्तसिद्ध आचार्य उपाध्याय-साधु साध्वी श्रावक और श्राविका। इन ८ पदों की निकट सम्फता सम्यकत्व के ८ आचारों का निर्दोष पालन और आचार्य की ८ संपदाओं के स्मरण के रूप में इन ८ दिनों का महत्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। प्राचीन काल में ८ दिन के उत्सव होते थे तथा किसी भी शुभ कार्य में ८ का योग होना अच्छा मानते थे। मंगल आठ माने गए हैं। सिद्ध भगवान के भी ८ गुण बताए हैं। साधु की प्रवचन माता आठ है। संयम के भी आठ भेद बताए गए हैं। योग के ८ अंग हैं। आत्मा के रूचक प्रदेश भी आठ हैं। इस प्रकार आठ की गणना बड़ी महत्वपूर्ण रही है। वर्ष भर में सांसारिक निजी प्रपंचों में उलझे मानव को पर्यूषण महापर्व के आठ दिनों में तो तप आराधना कर आठ विकारों का नाश कर आठ गुणों को प्राप्त करने का प्रयास कर मानव जीवन सफल सार्थक बनाने हेतु त्याग-तपस्या करनी चाहिए।

भारतीय लोकतंत्र महावीर की देन

भारतीय लोकतंत्र विश्व के सभी देशों में अपना अनूठा स्थान रखता है। भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुए मात्र साठ वर्ष ही हुए हैं। परंतु प्राचीनकाल से ही इसके सिद्धांतों का प्रार्दभाव हो चुका था। भगवान महावीर के दर्शन में इसका स्पष्ट उदाहरण मिलता है। महावीर लोकतंत्र सिद्धांत समानता का था। महावीर के अनुसार आत्मीक समानता की अनुभूति के बिना अहिसाविफल हो जाती है। साथ ही समानता के अभाव में उत्पन्न सामाजिक एवं राजनीतिक विषमताएं गणराज्य की विफलता का मूल कारण हैं। महावीर ने आत्म निर्णय के अधिकार प विशेष बल दिया है। उन्होंने कहा था सुख और दुख दोनों तुम्हारी ही सृष्टि है। तुम्हीं अपने मित्र हो और तुम्हीं अपने शत्रु। यह निर्णय तुम्ही को करना है, तुम क्या होना चाहते हो। जनतंत्र के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्धांत है। जहां व्यक्ति को आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं होता, वहां उसका कर्तव्य कुंठित हो जाता है। नव निर्माण के लिए पुरुषार्थ और पुरुषार्थ के लिए आत्म निर्णय का अधिकार आवश्यक है। महावीर का एक अन्य सिद्धांत सापेक्षता। का अर्थ है, सबको समान अवसर। बिलौना करते समय एक हाथ पीछे जाता है और दूसरा आगे आता है। इस क्रम से नवीनता निकलता है। चलते समय एक पैर आगे बढता है, दूसरा पीछे। फिर आगे वाला पीछे और पीछे वाला आगे आ जाता है। इस क्रम से गति होती है। आदमी आगे बढ़ता है। यह सापेक्षता ही स्यादवाद का रहस्य है। इसी के द्वारा सत्य का ज्ञान और उसका निरूपण होता है। यह सिद्धांत जनतंत्र की रीढ़ है। कुछेक व्यक्ति सत्ता, अधिकारी और पद से चिपककर बैठ जाएं दूसरों को अवसर न दें तो असंतोष की ज्वाला भभक उठती है। यह सापेक्ष नीति गुटबंदी को कम करने में काफी काम कर सकती है। नीतियां भिन्न होने पर भी यदि सापेक्षता हो, तो अवांछनीय अलगाव नहीं होता। महावीर के ये समस्त सिद्धांत मुक्ति के परिचायक हैं। जो आज जनतंत्र में व्यावहारिक मुक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

शनिवार, सितंबर 04, 2010

CHANDANBALA

There once was a beautiful princess named Vasumati. She was the daughter of king Dadhivahan and queen Dharini of Champapuri.
One day war broke out between the King of Champapuri and the king of nearby Kaushambi. It was a sad war. Vasumati's father could not win the war, so he had to run away in despair. When Vasumati and her mother learned that they had lost the war, they also decided to escape. While they were running away in the woods, a soldier from the enemy's army spotted them and captured both of them. Vasumati and her mother were scared. They didn't know what the soldier would do to them. He told the older lady (mother) that he would marry her, and that he would sell Vasumati. Upon hearing this, the queen went into shock and died. The soldier immediately felt sorry for his remark, and decided not to make anymore comments. He took Vasumati to Kaushambi to sell her.
When Vasumati's turn came to be sold as a slave, a merchant named Dhanavah happened to be passing by. He saw Vasumati being sold and felt that she wasn't an ordinary girl. He thought she might have been separated from her parents, and if she was sold as a slave, what would her fate be? So out of compassion for her, Dhanavah bought Vasumati, freed her from slavery, and took her home. On the way home he asked her, "Who are you? What happened to your parents? Please don't be afraid of me. I will treat you as my daughter." Vasumati didn't reply.
When they got home, the merchant told his wife, Moola, about Vasumati. "My dear," he said, "I have brought this girl home. She has not said anything about her past. Please, treat her like our daughter." Vasumati was relieved. She thanked the merchant and his wife with respect. The merchant's family was very happy with her. They named her Chandanbala, since she wouldn't tell anyone her real name.
While staying at the merchant's house, Chandanbala's attitude was like that of a daughter. This made the merchant very happy. Moola, on the other hand, was wondering what her husband would do with Chandanbala. She thought that he would marry her because of her beauty. Therefore, Moola was never comfortable with Chandanbala around.
One sunny day, when the merchant came home from his shop, the servant who usually washed his feet was not there. Chandanbala noticed this, and felt delighted to get a chance to wash his feet for all the fatherly good things he had done for her. While she was busy washing the merchant's feet, her hair slipped out of the hair pin. The merchant saw this and felt that her hair might get dirty. So he lifted her hair and clipped it on the back of her head. Moola saw all this and was outraged. She felt that her doubts about Chandanbala were true. Moola decided to get rid of Chandanbala as soon as possible.
When Dhanavah went on a three day business trip, his wife took the chance to get rid of Chandanbala. Right away she called a barber to cut off all of Chandanbala's beautiful hair. Then she tied Chandanbala's legs with heavy chains and locked her into a distant room, away from the main area of the house. She told all the servants not to tell the merchant where Chandanbala was, or she would do the same to them. Then Moola left to go to her parent's house.
When Danavah returned back from his trip, he didn't see either Moola or Chandanbala. He asked the servants about them. The servants told him that Moola was at her parent's house, but they didn't tell him where Chandanbala was because of their fear of Moola.
He asked the servants in a worried tone, "Where is my daughter Chandanbala? You better speak up now, because if you are hiding the truth, then you will be fired." Still nobody replied. He was very upset and didn't know what to do. After a few minutes an older servant thought, "I am an old woman and will soon die anyway because of age. What is the worse Moola can do anyway." So out of compassion for Chandanbala and sympathy for the merchant she told him all about what Moola did to Chandanbala.
She took the merchant to the room where Chandanbala was locked up. Dhanavah unlocked the door and saw Chandanbala. He was shocked when he saw her. He told Chandanbala, "My dear daughter, I will get you out of here. You must be hungry, let me find some food for you." He went to the kitchen to find food for her. He found that there was no food left, but only some dry lentils in a pan. The merchant decided to feed her that for the time being. So he took them to Chandanbala. He told her that he was going to get a blacksmith to cut off the heavy chains and so he left.
Chandanbala was amazed at how things were going. She started wondering how fate can change the life from rich to almost helpless. Chandanbala then thought of offering lentils to someone else before eating. She got up and walked to the door, and stood there with one foot outside and one inside.
To her surprise, she saw a monk (Lord Mahavir) walking near her room. She said, "Oh respected monk, please accept this food which is suitable for you." But Lord Mahavir had taken vow to fast until a person who met a certain conditions and offered him food. His conditions were, 1) the person who would be offering should be a princess, 2) she should be bald headed, 3) she should be in chains, 4) she should offer uncooked lentils, with one foot inside the house and other outside, 5) and she should be in tears. Therefore, Lord Mahavir looked at her and noticed that one of his pre-decided conditions was still missing. She met all conditions except the tears in her eyes, and therefore Lord Mahavir went on. Chandanbala felt very sad and tears started running down her face. She was sad that even though she had the chance to offer food to the monk, he would not accept it. In her crying voice, she once again requested the monk to accept the food. Lord Mahavir saw the tears in her eyes, and came back to accept the food knowing that all his conditions were met. Chanada put the lentils in Lord Mahavir's hand and felt satisfied.
While Lord Mahavir was looking for his pre-conditioned person, he had fasted for five months and twenty-five days. Heavenly angels celebrated the end of Lord Mahavir's fasting. By the angels power, Chandanbala's chains were broken, her hair grew back, and she was dressed as a princess. The loud music and a celebration drew the attention of king Shatanikand. He came to this place with his family, ministers and other people. Sampul, an old servant, recognized Chandanbala. He walked towards her, bowed, and broke out in tears. King Shatanikand asked, "Why are you crying?" Sampul replied, "My king, this is Vasumati the princess of Champapuri, daughter of king Dadhivahan and queen Dharinee." The king and queen now recognized her, and invited her to live with them. So she went, but first thanked the merchant Dhanavah who was so kind to her.
Lateron, when Lord Mahavir attained the perfect knowledge, he reestablished the four-fold order of Jain Sangh (community). At that time, Chandanbala took diksha and became the first nun (sadhvi). The end of that life, Chandanbala achieved liberation.


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