सही मायने में देखा जाये तो क्षमापना पर्व आज सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रहगया है, विरले ही होंगे, जो वास्तव में क्षमा याचना करते होंगे और क्षमादान देते होंगे, वरना आम तौर पर तो क्षमापना महापर्व के दिन भी कटुता और तुच्छ अहंकार का वातावरण स्पष्ट देखा जा सकता है। यह जगत् विदित तथ्य है कि जीवन में बहुत कम पल ऐसे आते हैं, जब व्यक्ति वास्तव में सर्वांग सुन्दर लगता है। मेरा मानना है कि पूरे समर्पण भाव के साथ क्षमापना करते हुए और सारी तुच्छताओं को त्याग कर क्षमादान करने की इन दो स्थितियों में ही इंसान सबसे सुंदर लगता है। बच्चे इतने सुंदर इसीलिए होते हैं क्योंकि उनमें कोई कुटिलता और तुच्छता नहीं होती, वे बिल्कुल निर्दोष लगते है। इसीलिए वे सुंदर होते हैं, मगर हमारे मन की कुरूपता हमें सुन्दर नहीं बनने देती। एक बार समर्पित होकर क्षमापर्व को हमें मनाने की जरूरत है। बहुत कम लोग इस बात को महसूस कर पाए होंगे कि क्षमा मांगने और देने में अहंकार और तुच्छता ये दोनों बुराईयां ही बाधक हैं। हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि किसी को भी माफ कर देना या क्षमा कर देना किसी भी धर्म में सर्वोपरि तत्व है, लेकिन फिर भी हमारा अहंकार किसी से क्षमा मांगने में आड़े आ जाता है, और हमारी तुच्छता किसी को क्षमा करने में बाधक साबित होती है। जिसमें दया है, करूणा है, किसी की भावनाओं को समझने की क्षमता है और जो उदार मन वाले हैं, वे ही किसी को क्षमा कर सकते हैं। अगर हम किसी को क्षमा नहीं कर पाएं, तो मान लीजिए कि हम तुच्छ हैं। हमसे अगर कोई भूल हो जाए, तो हमारा पहला प्रयास यही रहता है कि हमें क्षमादान मिल जाए, लेकिन अगर हमें क्षमादान न मिले तो हमारी क्या स्थिति होती है। अगले की तुच्छता की वजह से कितनी मानसिक यंत्रणा से हमें गुजरना पड़ता है। ठीक इसी तरह अगर हम क्षमा मांग पाएं, तो अपने अहंकार को टटोलिए, वह हावी होताहै, तभी हम्म नहीं मांग पाते हैं। पृथ्वी लोक के किसी भी धर्म और किसी भी संप्रदाय में क्षमा को सबसे महान बताया गया है। कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।
कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।
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