पर्यूषण महापर्व आठ दिनों तक मनाया जानेवाला आध्यत्मिक पर्व है। हमारी संस्कृति में आठ की संख्या का बड़ा महत्व है - अष्ट मंगल, अष्ट कर्म, अष्ट सिद्धि, अष्ट बुद्धि, अष्ट प्रवचन माता आदि। अतः पर्यूषण महापर्व भी अष्ट दिवसीय होता हैं। नदियों में गंगा, शत्रुंजय तिर्थों में, पर्वतों में सुमेरु, मंत्रों में नवकार, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में उत्तमहंस, कुल में ऋषभदेव - वंश, तप में मुनियों का तप, उसी प्रकार पर्वों में पर्यूषण पर्व सर्वश्रेष्ठ है। अतः यह महापर्व कहलाता हैं। यद्यपि जैन धर्म के सभी पर्व महत्वपूर्ण हैं, परन्तु पर्वाधिराज का पद तो पर्यूषण पर्व को ही दिया गया है। पर्यूषण पर्व हमको मोह निद्रा में से जगाता है। पर्यूषण के आरंभ के सात दिवस साधना के होते है एवं अंतिम संवत्सरी का दिवस सिद्धि का दिवस है। यह महापर्व मनुष्य को सचेत करनेवाला एवं मोक्ष प्राप्त करानेवाला हैं। यदि ऐसे पवित्र पर्व में भी मोक्ष का प्रामाणिक प्रयत्न करने से चूक गए तो मनुष्य - जन्म व्यर्थ चला जायेगा। पर्यूषण पर्व प्रायश्चित का पुनित अवसर है।
मोह, माया, राग, द्वेष एवं आशक्तियां मनुष्य को जाने-अनजाने पापकर्म के लिए प्रवृत्त करती है। अध्यात्म पर्व हमको इनमें से अनावृत्त होने की प्रेरणा देता हैं। जीव मात्र के प्रति मैत्रीभाव एवं करुणा भाव द्वारा हृदय को निर्मल बनाने की भावना प्राप्त करने की प्रेरणा ऐसे अध्यातम पर्व प्रदान करते हैं। पर्यूषण ऐसे अध्यात्म पर्व प्रदान करते हैं। पर्यूषण को पर्वाधिराज या महापर्व इसलिए कहा जाता है कि इस पर्व की दृष्टी अध्यात्मोन्मुखी है। इस पर्व में विशुद्ध आत्मभाव-वीतराग भाव की साधना की जाती हैं। पर्यूषण पर्व का मुख्य ध्येय और लक्ष्य यही है कि आत्मा को पवित्र बनाकर उसमें सद्गुणों का बाग लगाना। मानव शरीर मात्र ही नही है, किन्तु आत्मा है। शरीर तो आत्मा के ऊपर लिबास मात्र है। आत्मा को पवित्र करना ही मानव जीवन का सार हैं। वस्तुतः पर्यूषण पर्व का प्रायोजन आत्मा को निर्मल और स्वाधीन बनाना हैं। मन और बुद्धि को अहंकार, ममकार, काम, क्रोध, मोह आदि की मलिनता से हटाकर उन्हे परिमार्जित करके पुनः अपने लक्ष्य की ओर, आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति की ओर लगान हैं, अपनी आत्मा की उन्नति करनी हैं। इस प्रकार आत्मशुद्धि के साथ-साथ अपने आत्मिक विकास एवं आत्मोन्नति का सही लेखा - जोखा करना इस पर्व का उद्देश्य हैं। यह पर्व मनाया ही इसलिए जाता है कि आत्म - जागरण हो, आत्म - स्फुरणा हो। यह आत्म जागृति का पर्व हैं। इसलिए जैन जगत में इसका अत्याधिक महत्व हैं। साथ ही यह विश्व मैत्री का प्रेरक होने से संसार का एक मात्र अनूठा पर्व है।
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