स्वयं की आत्मा को बनाएं मित्र : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणनवकार मंत्र से चलता है जिन शासन : ज्योतिषाचार्य प्रणामसागरजी
15.12.2023, शुक्रवार, दादर (पूर्व), मुम्बई (महाराष्ट्र), जन-जन में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति की अलख जगाने वाले, जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले, मोक्ष प्राप्ति का साधन बताने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता की मंगल सन्निधि में दादर प्रवास के दूसरे दिन दिगम्बर सम्प्रदाय के ज्योतिषाचार्य प्रणाम सागरजी महाराज भी उपस्थित हुए। जैन सम्प्रदाय के दो आध्यात्मिक गुरुओं का आध्यात्मिक जन-जन को आह्लादित कराने वाला रहा। मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में दोनों आचार्यों ने उपस्थित श्रद्धालु जनता को पावन प्रेरणा भी प्रदान की व जैन एकता का मंगल संदेश प्रदान किया।
शुक्रवार को प्रातःकाल श्री साउण्ड सिने स्टूडियो में बने वर्धमान समवसरण में आज ‘जैनम् जयतु शासनम्’ का समायोजन हुआ। इस जैन शासन के प्रभावक कार्यक्रम में उपस्थित जनता को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के देदीप्यमान महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि दुनिया में हर किसी के मित्र भी होते हैं, अथवा आदमी अपना मित्र बनाता है। शास्त्रों में एक बात बताई गई कि मानव की स्वयं की आत्मा ही उसकी सबसे अच्छी मित्र होती है, और आत्मा ही शत्रु भी हो सकती है। अच्छी प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा उस व्यक्ति की मित्र होती है और बुरी प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा उस व्यक्ति की शत्रु होती है। अहंकार, क्रोध, लोभ व माया में लिप्त आत्मा आदमी की शत्रु व निरहंकार, संतोषी, सरल, धर्म परायण आत्मा स्वयं की मित्र होती है।
मानव अपनी आत्मा को अपना मित्र बनाने का प्रयास करे। क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों से अपनी आत्मा को मुक्त रखने का प्रयास हो। हम जैन संप्रदायों में भेद में भी अभेद को देखने का प्रयास करें। परस्पर सहयोग और सेवा की भावना का विकास होता रहे। जैन शासन के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के 2500 वर्ष के उपलक्ष में दिल्ली में एक विशाल कार्यक्रम का समायोजन हुआ था, जिसमें परम पूज्य गुरुदेवश्री तुलसी भी उपस्थित थे। उस दौरान जैन एकता के एक प्रतीक, एक ध्वज और एक ग्रन्थ की बात भी सामने आई थी।
दिगम्बर जैन संप्रदाय के ज्योतिषाचार्य प्रणाम सागरजी महाराज ने कहा कि आज ‘जैन जयतु शासनम्’ का आयोजन है। नवकार महामंत्र के द्वारा हम सभी जैन हैं। संतों की वाणी से आदमी सौभाग्यशाली बनता है। शासन वोट के द्वारा चलता है और जिन शासन नवकार मंत्र से चलता है। परम पूजनीय आचार्यश्री महाश्रमणजी जैसे संतों के साथ समागन तो बहुत ही सुखद फल देने वाला है। हम सभी को जैन एकता का ध्यान रखना है और आचार्यजी के बताए मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। इस दौरान उन्होंने स्वरचित अनेक पुस्तकें आचार्यश्री को उपहृत की। आचार्यश्री ने भी उन्हें एक पुस्तक उपहृत की। मंच पर दोनों आचार्यों के परस्पर स्नेह को देखकर जनता अभिभूत नजर आ रही थी।
Make your soul a friend: Yugpradhan Acharyashri Mahashraman
Jina rule is governed by Navkar Mantra: Astrologer Pranamsagarji
15.12.2023, Friday, Dadar (East), Mumbai (Maharashtra), the eleventh member of the Jain Shwetambar Terapanth Dharma Sangh, who awakens the spirit of goodwill, morality and de-addiction among the people, who shows the right path to the people and tells the means of attaining salvation. Pranam Sagarji Maharaj, the astrologer of Digambara sect, was also present on the second day of his stay in Dadar in the Mangal Sannidhi of Anushasta. The spiritual teachings of two spiritual gurus of the Jain sect brought joy to the people. In the main discourse program, both the Acharyas provided sacred inspiration to the devotees present and gave the auspicious message of Jain unity.
Today on Friday morning, 'Jainam Jayatu Shashanam' was organized in the Vardhaman Samavasarana of Shree Sound Cine Studio. The resplendent Mahasurya Acharyashri Mahashramanji of the Jain Shwetambar Terapanth Dharmasangh, while presenting the sacred Patheya to the people present in this impressive program of Jain rule, said that everyone has friends in the world, or man makes his own friends. One thing mentioned in the scriptures is that man's own soul is his best friend, and the soul itself can be an enemy. The soul engaged in good tendencies is the friend of that person and the soul engaged in bad tendencies is the enemy of that person. The soul indulged in ego, anger, greed and illusion is man's enemy and the egoless, content, simple and religious soul is his own friend.
Man should try to make his soul his friend. Try to keep your soul free from the pain of anger, pride, illusion and greed. Let us try to see the difference even within the differences in Jain sects. The spirit of mutual cooperation and service should continue to develop. A huge program was organized in Delhi to commemorate the 2500 years of Lord Mahavir, the last Tirthankar of Jain rule, in which His Holiness Gurudev Shri Tulsi was also present. During that time, there was also talk of a symbol of Jain unity, a flag and a book.
Astrologer Pranam Sagarji Maharaj of Digambar Jain sect said that 'Jain Jayatu Shashanam' is being organized today. By Navkar Mahamantra we all are Jains. Man becomes fortunate by the words of saints. Governance is run through votes and Jin's governance is run through Navkar Mantra. Meeting with saints like the most revered Acharyashri Mahashramanji is going to give very pleasant results. We all have to take care of Jain unity and move forward on the path shown by Acharyaji. During this period, he gifted many self-written books to Acharyashree. Acharyashree also gifted him a book. The public seemed overwhelmed by the mutual affection between the two Acharyas on the stage.