सूर्य और अंधेरे की ताकत का इस बात से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता हे कि दोनों एक दूसरे के समानान्तर कभी नहीं रहते। जबकि सूर्य को अपनी शक्ति से ही देदीप्यमान होना पड़ता है और अंधेरे के साथ प्राकृतिक ने हवा, पानी और बादलों को सहयोगी बना दिया। फिर भी पल भर का अन्तर नहीं रहता एक दूसरे आने-जाने में। प्रकाश का प्रवेश ही काफी होता है, अंधेरे को मिटाने के लिए। हाँ ! प्रकाश का बना रहना ही अंधेरे को हटाना कहा जा सकता है। आचार्यवर तुलसी जी इस पृथ्वी पर एक अखण्ड दीप के समान आलोकित महानआत्मा हैं जो हम सबके जीवन को ज्योतित करने के लिए अवतीर्ण लिए हैं।
आचार्यवर तुलसी जी इस पृथ्वी पर एक अखण्ड दीप के समान आलोकित महान आत्मा हैं जो हम सबके जीवन को ज्योतित करने के लिए अवतीर्ण लिए हैं। इस अखण्ड दीप का जलना इस बात का द्योतक है कि भले ही अंधकार कितना ही शक्तिशाली, बलवान, ताकतवर, क्रोधी या उद्दण्ड रहा है, भीतर से वह काफी कमजोर और डरपोक भी है, जो एक छोटे से दीप की टीमटीमाती लौ के सामने भी नहीं खड़ा रह पाता। इस अखण्ड दीप का जलना इस बात का द्योतक है कि भले ही अंधकार कितना ही शक्तिशाली, बलवान, ताकतवर, क्रोधी या उद्दण्ड रहा है, भीतर से वह काफी कमजोर और डरपोक भी है, जो एक छोटे से दीप की टीमटीमाती लौ के सामने भी नहीं खड़ा रह पाता। फिर भी हम अपने आपको उसके सामने समर्पित कर देते हैं।तेज हवा का झोंका आते ही या पानी की हल्की सी बूंदे भी इस जलती हुई लौ को अपने बांहों में भर कर उड़ा ले जाती है। पुनः अखण्ड दीप उसे बार-बार जलाती रहती है। यह क्रम संसार में चलता रहता है और चलता रहेगा। इसका दूसरा कोई विकल्प अभी तक नहीं हो पाया है। सूर्य का प्रकाशमान होना, छुप जाना, अंधेरे का संसार फैल जाना यह क्रम है जो हमारे जीवन का अब अंग सा बन चुका है। एक बात हमने अपने जीवन में भी अनुभव किया होगा जो व्यक्ति स्वयं को दिव्यमान कर लेते हैं दीप को सदैव जलाये रखते हैं, उनके मुखमंडल पर आभा की किरणें सदा झलकती रहती है। इसीप्रकार हमारे शास्त्रों में व्रत का महत्व है। व्रत भी एक प्रकार का प्रकाश है, जिसे अनैतिकता पर नैतिकता का विजय भी कहा जा सकता है। इस व्रत से भी महान व्रत है- 'अणुव्रत', अणुव्रत से हम सीधा सा अंदाज लगा सकते हैं कि हम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कारणों के निवारण या समाधान के लिये व्रत करें। जिसे आंतरिक या बाहरी दोनों रूप से किया जा सकता है। हमारे पास सब सुविधा रहते हुए भी हम भटकते रहतें हैं, जिसका समाधान 'अणुव्रत' से किया जा सकता है। जिस प्रकार हम 'अहिंसा' का अर्थ सिर्फ 'हिसा' से लगा लेते हैं, पर आत्मीय हिंसा, स्वःहिंसा, विचारों की हिंसा की ओर हमारा ध्यान कदापि नहीं जाता ।जबकि जैन धर्म में 'अणुव्रत' हमें सूक्ष्म से भी सूक्ष्म दृष्टि प्रदान कर हर प्रकार की हिंसा पर भी नियंत्रण करने का मार्ग दिखाती है। अणुव्रत की आचार संहिता नैतिकता की आचार संहिता है। उसे समझने के लिए अणुव्रत के दर्शन को समझना आवश्यक है। आचार्यवर तुलसी जी ने बहुत संक्षेप में अणुव्रत दर्शन के व्यापक कोण प्रस्तुत किए हैं -
" हमारी दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील ही नहीं होता, कुछ शाश्वत भी होता है। प्रकृति शाश्वत है। मनुष्य की प्रकृति भी शाश्वत है। उसमें आदतें हैं और उन आदतों के हेतु- क्रोध, मान, माया और लोभ आदि तत्त्व हैं। अच्छाई नई नहीं है, बुराई भी नई नहीं है। ये सब चिरकालीन हैं। केवल इनका रूप बदलता रहता है। फिर मनुष्य क्यों नहीं बदलता? अणुव्रत बदलने का दर्शन है। मनुष्य अपनी प्रकृति का निरीक्षण करे, उसे समझे और उसमें परिवर्तन लाने के लिए अभ्यास करे, अणुव्रत इसीलिए है।"
"तुलसी विचार दर्शन" में आचार्य महाप्रज्ञ जी ने लिखा है कि "आचार्य तुलसी का अर्थ है एक महान आत्मा, एक शब्दातीत आत्मा। महान का लघु में समावेश संभव नहीं होता, शब्दातीत को शब्दों में बांधना भी संभव नहीं होता। फिर भी शब्दों की दुनिया में जीता हूँ, इस लिए शब्दातीत को शब्दों में बांधने का प्रयत्न किया है।"
वैसे तो जैन धर्म को समझना बहुत साधना का कार्य है पर आचार्यवर तुलसी जी ने इसे इतने सरल शब्दों में परिभाषित कर जन-जन तक पहूँचा दिया। अणुव्रत के माध्यम से जैन धर्म को तो और व्यपकता प्रदान की है आपने। इस युगपुरुष गुरूवर आचार्य तुलसीजी को मेरे सादर प्रणाम।
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. -453/2, साल्ट लेक सिटी, कोलकाता- 700106