बहुत चले हैं बिना शिकायत हम मंज़िल के आश्वासन पर,
लेकिन हर मंज़िल को पीछे छोड़ रहे हैं चरण तुम्हारे,
तपे बहुत जलती लूओं से, रहें नीड़ में मन करता है,
पर नभ की उन्मुक्त पवन में खींच रहे हो प्राण हमारे॥
देख रहे दिन में भी सपने, कितनी सरज रहे हो चाहें,
सदा दिखाते ही रहते हो हमें साधना की तुम राहें,
खोली हाट शान्ति की जब से ग्राहक कितने बढ़ते जाते,
नहीं रहा अनजाना कोई सबका स्नेह अकारण पाते,
बिना शिकायत जुटे हुए हम हर सपना साकार बनाने,
फिर भी तोष नहीं धरती से तोड़ रहे अंबर के तारे॥
बचपन से ले अब तक कितने ग्रन्थों को हमने अवगाहा,
अपनी नाजुक अंगुलियों से जब तब कुछ लिखना भी चाहा,
समय-समय पर बाँधा मन के भावों को वाणी में हमने,
नहीं कहा विश्राम करो कुछ एक बार भी अब तक तुमने,
बहुत पढ़े हैं बिना शिकायत मन ही मन घबराते तुमसे,
कब होंगे उत्तीर्ण तुम्हारी नज़रों में पढ़ पढ़कर हारे॥
हर अशब्द भाव को बाँधा मधुर-नाद में हे संगायक!
मन की प्रत्यंचा पर सचमुच चढ़ा दिया संयम का सायक,
हर मानव की पीड़ा हरकर तुमने उसको सुधा पिलाई,
मुरझाते जीवन के उपवन की मायूसी दूर भगाई,
बहुत जगे हैं बिना शिकायत छोटी- बड़ी सभी रातों में,
बिना जगे कुछ सो लेने दो अब तो धरती के उजियारे!
कदम-कदम पर चौराहे हैं लक्ष्य स्वयं मंज़िल से भटका,
बियावान सागर के तट पर आकर प्राणों का रथ अटका,
जूझ रही है हर खतरे से विवश ज़िंदगी यह मानव की,
कुछ अजीब-सी अकुलाहट देखी जब से छाया दानव की,
डटे हुए हैं बिना शिकायत जीवन के हर समरांगण में,
किन्तु कहोगे कब तुम हमको खड़ी पास में विजय तुम्हारे॥
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