सोमवार, सितंबर 06, 2010

Paryushan Parva

Paryushan Parva is an annual religious festival of the Jains. Considered auspicious and sacred, it is observed to deepen the awareness as a physical being in conjunction with spiritual observations. Generally,Paryushan Parva falls in the month of September.

In Jainisim, fasting is considered as a spiritual activity, that purify our souls, improve morality, spiritual power, increase knowledge and strengthen relationships. The purpose is to purify our souls by staying closer to our own souls, looking at our faults and asking for forgiveness for the mistakes and taking vows to minimize our faults. Also a time when Jains will review their action towards their animals, environment and every kind of soul.

Paryashan Parva is an annual, sacred religious festivals of the Jains. It is celebrated with fasting, reading of scriptures, observing silence etc. preferably under the guidance of monks in temples. Strict fasting where one has to completely abstain from food and even water is observed for a week or more. Depending upon one's capability, complete fasting spans between 8-31 days. Religious and spiritual discourses are held where tales of Lord Mahavira are narrated. The Namokar Mantra is chanted everyday. Forgiveness in as important aspect of the celebration. At the end of Fasting, all will ask for forgiveness for any violence or wrongdoings they may have imposed previous year. The practice of forgiving transcends religious boundaries.

Digambara Jains observe it for a period of ten days during which Dashalakshana vrata is undertaken. Tatwartha Sutra of Umaswati is recited. They celebrate Ananta- Chaturdasi on the Chaturdasi. Svwetambara Jains celebrate it as an 8 day festival which ends with Bhadarpada Shukla Panchami. Kalpa Sutra is recited including the section of birth of birth of Lord Mahavira. The last day is called Samvatsari.

रविवार, सितंबर 05, 2010

क्षमा

क्षमा - जीवन उत्थान का मार्ग है।
क्षमा - नर से नारायण, संसारी से शिव,
क्षमा - साधक से सिद्ध, दानव से मानव,
क्षमा - खुशहाली का खजाना है।
क्षमा - ही परम सुख है।
क्षमा - ही अंतिम सत्य है।
क्षमा - वीतराग धर्म की पगडंडी है।
क्षमा - सभी गुणों का दाता है।
क्षमा - जीवन में शांति-संतोष समता प्रदाता है।
क्षमा - धारण करने से दुःख-दर्द
क्षमा - सभी भेदभाव मिटाता है।
क्षमा - मोक्ष का दरवाजा है।
क्षमा - स्नेह की सरिता है।
क्षमा - मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी है।
क्षमा - आत्मा का आनंद है।
क्षमा - जीवन निर्माता है।
क्षमा - धर्म की जननी है।
क्षमा - में लक्ष्मी का भंडार है।
क्षमा - ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।

मनुष्य को मनुष्यत्व का पाठ पढ़ाता है पर्यूषण पर्व

पर्यूषण पर्व बड़े भाग्य से प्राप्त होता हैं, पर्यूषण पर्व से एक ऐसी सूझ आती है, एक ऐसी सद्बुद्धि प्राप्त होती है जिससे हम आठ दिनों तक मोह-माया से विरक्त होकर अपनी अपनी कमियों को दूर कर सकते है तथा परमात्मा की भक्ति में लीन होकर संसार की असारता को भुल जाते है, यह पर्व हमारी धार्मिक प्रवृतियों को बढ़ावा देता हैं। निष्काम भक्ति वह होती है जिसमें कोई कामना न हो अगर हमारी भक्ति में स्वर्ग की कामना है तो भक्ति निष्काम नहीं हो सकती है, वह बंध गई। पर्यूषण पर्व की साधना निष्काम भक्ति का प्रतिक होती है, पर्यूषण भावनाओं के साथ तप-जपकर भक्त भगवान को रिझाने में सफल होते हैं। आठ दिनों के इस पर्व में मनुष्य, नियम, आसन, पाणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग जैसी साधना तप-जप के साथ कर मानव जीवन को सार्थक बनाता है। यह पर्व मनुष्य को मनुष्यत्व का पाठ बढ़ाता हैं। विश्व में आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अत्याचार, अधर्म बढ़ता जा रहा है, भाई-भाई के रक्त का प्यासा बनकर संस्कृति व संस्कारों की खिल्ली उड़ा रहा है, मानवता पसीज रही है, आज विश्व को भगवान महावीर की भांति जीते-जगते महापुरुष की जरुरत है जिन्होंने ‘क्षमा विरस्य भुषणम‘ का मंत्र देकर लोगों को अहिसा का पाठ पढ़ाया था। महान पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व में भगवान महावीर के इन्हीं कथनों को चरितार्थ कर दानव भी मानव बनने की कोशिश करता है पर्यूषण पर्व के आठवे दिन सवत्सरी का प्रतिक्रमण कर जिस सहद्धया से मन के वैर को भुलाकर एक मनुष्य दुसरे मनुष्य के प्रति प्रेम का इजहार करता है हकीकत मे पर्यूषण पर्व की महानता व महावीर के संदेश का स्वरुप देखने को मिलता है। पर्यूषण पर्व की आराधना मे जो व्यक्ति लीन हो जाता है, जप-तपकी साधना से, गुरुभगवंतो की निश्रा से मनुष्य तनावों से मुक्त होकर निखर जाता है। पर्यूषण पर्व की साधना से आराधक धर्मानिष्ठ बनकर समाज व धर्म की धरोहर बन जाता है यह पर्व क्षमा, मैत्री, बंधुत्व की भावना को प्रबल कर पारस्परिक प्रेम व सद्भावना का माहोल निर्मित करता हैं।

मानव की सोई हुई अन्तर्चेतना को जागृत करने, आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार, सामाजिक सद्भावना एवं सर्व धर्म समभाव के कथन को सम्बल देने पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व का आगमन होता है यह पर्व धर्म के साथ राष्ट्रीय एकता तथा मानव धर्म का पाठ पढ़ाता है यह पर्व हमे सिखाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की प्राप्ति में ज्ञान व भक्ति के साथ सद्भावना का होना अनिवार्य हैं। भगवान भक्त की भक्ति को देखता है उसकी अमीरी-गरीबी या सुख समृद्धि को नहीं भक्त अगर भगवान से प्रेम करे तो दुःख कभी आये ही नहीं इतनी सार्थक बातों का ज्ञान महान पर्यूषण पर्व देता है। जैन शासन का यह पर्व हर दृष्टीकोण से गर्व करने लायक है क्योंकि इस दरम्यान गुरु भगवंतो के मुखारविद से अमृतवाणी का श्रवण होता हैं जो हमारे जीवन में ज्ञान व धर्म के बिज बोता हैं। भौतिक संपत्ति से मानव का मन चंचल व अशांत हो जाता है। मनुष्य योनि में आकर भी जब व्यक्ति भौतिक सुखो के स्वार्थो में लिप्त रहे तो समझ लेना चाहिए उसका मानव जीवन निरर्थक व बेकार है जो मनुष्य भगवान महावीर के सिद्धांतो पर चलकर धर्म का रास्ता अख्तियार कर लेता है परमात्मा उसके हृदय रुपी मंदीर में समा जाता हैं। पर्यूषण पर्व परमात्मा को पाने का सरल मार्ग है। इसलिए इस पर्व पर दुनिया गर्व करती है और इस पर्व पर साधक साधना में रत होकर भौतिकता को त्याग कर त्याग की भावना से सराबोर हो जाता है। मन की कलुषिता को दफनाकर मैत्री-बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत होता है क्षमा के सार को आचार और विचार बना मानव इस पर्व से पवित्र बन जाता है। पर्यूषण पर्व की मधुर बेला में प्रेम, भक्ति, श्रद्धा, आस्था व धर्म की छल-छल धारा प्रवाहित होती है। साधना मे तर मनुष्य का मन शान्त, स्वच्छ, शीतल व निर्मल हो जाता है। पर्यूषण पर्व की पवित्रता से जनमन आच्छांदित होकर जगत का सम्पूर्ण कलमल मिटाने का संकल्प लेता है। वैमनस्य की भावना से मुक्त होकर व्यक्ति वैचारिक शक्तियों को प्रबल बनाकर पुरुसार्थ के कार्यों मे सलग्न हो जाता है।

सिर्फ रस्म अदायगी का नहीं, सौंदर्य को निखारने का महापर्व है क्षमापना

सही मायने में देखा जाये तो क्षमापना पर्व आज सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रहगया है, विरले ही होंगे, जो वास्तव में क्षमा याचना करते होंगे और क्षमादान देते होंगे, वरना आम तौर पर तो क्षमापना महापर्व के दिन भी कटुता और तुच्छ अहंकार का वातावरण स्पष्ट देखा जा सकता है। यह जगत् विदित तथ्य है कि जीवन में बहुत कम पल ऐसे आते हैं, जब व्यक्ति वास्तव में सर्वांग सुन्दर लगता है। मेरा मानना है कि पूरे समर्पण भाव के साथ क्षमापना करते हुए और सारी तुच्छताओं को त्याग कर क्षमादान करने की इन दो स्थितियों में ही इंसान सबसे सुंदर लगता है। बच्चे इतने सुंदर इसीलिए होते हैं क्योंकि उनमें कोई कुटिलता और तुच्छता नहीं होती, वे बिल्कुल निर्दोष लगते है। इसीलिए वे सुंदर होते हैं, मगर हमारे मन की कुरूपता हमें सुन्दर नहीं बनने देती। एक बार समर्पित होकर क्षमापर्व को हमें मनाने की जरूरत है। बहुत कम लोग इस बात को महसूस कर पाए होंगे कि क्षमा मांगने और देने में अहंकार और तुच्छता ये दोनों बुराईयां ही बाधक हैं। हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि किसी को भी माफ कर देना या क्षमा कर देना किसी भी धर्म में सर्वोपरि तत्व है, लेकिन फिर भी हमारा अहंकार किसी से क्षमा मांगने में आड़े आ जाता है, और हमारी तुच्छता किसी को क्षमा करने में बाधक साबित होती है। जिसमें दया है, करूणा है, किसी की भावनाओं को समझने की क्षमता है और जो उदार मन वाले हैं, वे ही किसी को क्षमा कर सकते हैं। अगर हम किसी को क्षमा नहीं कर पाएं, तो मान लीजिए कि हम तुच्छ हैं। हमसे अगर कोई भूल हो जाए, तो हमारा पहला प्रयास यही रहता है कि हमें क्षमादान मिल जाए, लेकिन अगर हमें क्षमादान न मिले तो हमारी क्या स्थिति होती है। अगले की तुच्छता की वजह से कितनी मानसिक यंत्रणा से हमें गुजरना पड़ता है। ठीक इसी तरह अगर हम क्षमा मांग पाएं, तो अपने अहंकार को टटोलिए, वह हावी होताहै, तभी हम्म नहीं मांग पाते हैं। पृथ्वी लोक के किसी भी धर्म और किसी भी संप्रदाय में क्षमा को सबसे महान बताया गया है। कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।

कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।