आदमी का उत्पादन करना एक बात है और उसका निष्पादन करना दूसरी बात है। प्राकृतिक तरीके से तो आदमी का उत्पादन होता ही है, किंतु अस्वाभाविक तरीकों से भी मनुष्यों का, प्राणियों का उत्पादन किया जाता रहा है। जैनाचार्य द्वारा रचित प्राचीन ग्रंथ 'जोणि पाहुड़' में बताया गया है कि विशेष विधि से प्राणियों का उत्पादन किया जा सकता है। वहां एक उदाहरण मिलता है। भक्त राजा आचार्य के पास पहुंचा और निवेदन किया- गुरुदेव! शत्रु राजा ने आक्रमण कर दिया है। उसकी सेना का सामना करने में असमर्थ हूं। आप समर्थ हैं, मेरे लिए शरण भूत है। इस संकट की स्थिति में आप ही त्राण दे सकते हैं। आचार्य का दिल करुणा से भर गया, राजा के प्रति अनुराग का भाव आ गया। आचार्य विधियों के वेत्ता थे। एक विधि का प्रयोग किया। तालाब में कोई ऐसा द्रव्य डाला कि देखते ही देखते तालाब में घुड़सवार निकलने लगे। हजारों घुड़सवार निकलते ही चले गए, शत्रु सेना घबरा उठी। सोचा, जिस राजा के पास इतनी विशाल सेना है, उसके सामने हम कैसे टिक पाएंगे? शत्रु सेना वहां से लौट गई और राजा का बचाव हो गया। एक विशेष विधि से घुड़सवार को उत्पन्न कर दिया गया। इसी प्रकार विधि उत्पादन का एक उदाहरण और मिलता है। मध्य रात्रि का समय। आचार्य अपने शिष्यों को जोणि पाहुड़ की वाचना दे रहे थे। उस वाचना के अंतर्गत मत्स्य का निर्माण और उनकी वृद्धि कैसे होती है? यह विधि बताई गई। संयोगवश उस मध्य रात्रि के समय कोई मछुआरा उधर से गुजर रहा था। उसने सारी बात ध्यान से सुन ली और विधि को अच्छी तरह से समझ लिया। मछुआरा सीधा तालाब के पास पहुंचा और विधि का प्रयोग किया। गांव का तालाब मछलियों से भर गया। प्रात:काल आचार्य उसी रास्ते से आ रहे थे। मछलियों से भरा हुआ तालाब देखकर सोचने लगे, प्राय: मछलियों से शून्य रहने वाला तालाब आज भरा हुआ कैसे हैं? अनुमान लगा लिया कि कल रात्रि में मैंने शिष्यों को वाचना दी थी। काफी गोपनीयता के साथ वाचना देने पर भी, लगता है किसी ने बात सुन ली और उस विधि का प्रयोग किया है। परिणाम: तालाब मत्स्य से भरा हुआ है। आदमी का उत्पादन करना भी सामान्य बात नहीं, किंतु उसका निर्माण करना, उसको उपयोगी बना देना बहुत विशेष बात है। मूल्यवान कौन होता है, जो उपयोगी होता है। चाहे पदार्थ हो अथवा प्राणी। जिसकी उपयोगिता होती है, उसका मूल्य बढ़ता है, प्रतिष्ठा बढ़ती है। जो पदार्थ प्राणी उपयोगिता शून्य बन जाते हैं, उनका मूल्य भी प्राय: समाप्त हो जाता है और प्रतिष्ठा भी कम हो जाती है।
आचार्य महाश्रमण