कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, अगस्त 06, 2021

भीतर का "मैं" का मिटना ज़रूरी है...



सुकरात समुन्द्र तट पर टहल रहे थे| उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी |

वो उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा , -''तुम क्यों रो रहे हो?''

लड़के ने कहा- 'ये जो मेरे हाथ में प्याला है मैं उसमें इस समुन्द्र को भरना चाहता हूँ पर यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं |''

बच्चे की बात सुनकर सुकरात विस्माद में चले गये और स्वयं रोने लगे |

अब पूछने की बारी बच्चे की थी |

बच्चा कहने लगा- आप भी मेरी तरह रोने लगे पर आपका प्याला कहाँ है?'


सुकरात ने जवाब दिया- बालक, तुम छोटे से प्याले में समुन्द्र भरना चाहते हो,और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में सारे संसार की जानकारी भरना चाहता हूँ |


आज तुमने सिखा दिया कि समुन्द्र प्याले में नहीं समा सकता है , मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा |''


यह सुनके बच्चे ने प्याले को दूर समुन्द्र में फेंक दिया और बोला- "सागर अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो मेरा प्याला तो तुम्हारे में समा सकता है |"इतना सुनना था कि सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले-

"बहुत कीमती सूत्र हाथ में लगा है|


हे परमात्मा ! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते हैं पर मैं तो सारा का सारा आपमें लीन हो सकता हूँ |"


ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान उस बालक में समा गए |

सुकरात का सारा अभिमान ध्वस्त कराया | जिस सुकरात से मिलने के सम्राट समय लेते थे वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में लोट गए थे |


ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं तब आपके अंदर का "मैं " सबसे पहले मिटता है |


या यूँ कहें....जब आपके अंदर का "मैं" मिटता है तभी ईश्वर की कृपा होती है |



साभार : टेलीग्राम लिंक👇🏻

https://t.me/joinchat/RD6z0BzLAXlkQdBaWCQhFQ


गुरुवार, फ़रवरी 27, 2020

स्वाध्याय परम तप है

चूना और बाल्टी

गुरु शिष्यों को अपने प्रवचन में स्वाध्याय का महत्व बता रहे थे।

गुरु ने बताया कि हर प्रकार के तप से कर्मों की निर्जरा होती है और उनमें से स्वाध्याय भी एक तप है।
शिष्य ने पूछा - गुरु जी,  वह कैसे?

हमें तो कल का पढ़ा हुआ आज भी याद नहीं रहता और आज का सुना हुआ प्रवचन के पंडाल से निकलते ही भूल जाता है। फिर हमारे कर्म कैसे कटेंगे? 

"चाहे याद रहे या न रहे,  बस! सुनते रहो।"

ऐसा करो अंदर एक बाल्टी रखी है। वह लेकर आओ।

शिष्य बाल्टी लेकर आया तो सबने देखा कि बाल्टी में कई वर्ष पहले से चूना घोलते रहने के कारण वह चूना उसमें बुरी तरह चिपका हुआ था।
यहां तक कि उसने लोहे की बाल्टी को भी खाना शुरू कर दिया था।

उस बाल्टी में छेद होने लगे थे,  जो अभी तक चूने से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहे थे।

गुरु ने कहा कि इस बाल्टी में साफ पानी डालो।

शिष्य ने पानी डाला तो चूना घुलने लगा और पानी छेदों में से बाहर निकलने लगा।
होते - होते सारा पानी निकल गया।

गुरु ने कहा कि और पानी डालो।
शिष्य ने और पानी डाला लेकिन जैसे प्रवचन की बातें एक कान से सुनते ही दूसरे कान से निकल जाती हैं,  वैसे ही पानी की एक बूँद भी उसमें नहीं टिकी।

गुरु ने कहा - और पानी डालो।
शिष्य ने कहा भी कि पानी डालने के क्या होगा?  टिकता तो है नहीं।

पर वह भी गुरु का आज्ञाकारी शिष्य था। गुरु ने 25 बाल्टी पानी उसमें डलवा दिया।

अब गुरु ने पूछा कि क्या तुम्हें कोई बदलाव दिखाई देता है इसमें? 

शिष्य ने ध्यान से देखा और कहा कि  गुरु जी,  इसमें बाल्टी में पानी भले ही न टिका हो, पर बाल्टी साफ हो गई है और चूना इसे छोड़कर पानी के साथ बह चुका है।
अब बाल्टी बिल्कुल साफ दिखाई दे रही है।
इसके छिद्र भी दिखाई दे रहे हैं जो पहले चूने के कारण दिखाई नहीं दे रहे थे।

बस! यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं कि प्रवचन की बातें भले ही तुम्हारे मन में नहीं टिके,  बार-बार सुनने से मन का मैल तो धुल ही जाएगा और तुम्हें अपने अवगुण दिखाई देने लगेंगे।

अभी तक तो तुम उन दोषों को छिपाए बैठे थे। अब तुम्हें अहसास हो जाएगा कि उनको दूर किए बिना बाल्टी में पानी टिकने वाला नहीं है और तुम गुणों को धारण करने की प्रक्रिया में लग जाओगे।

इसीलिए  निरंतर स्वाध्याय करो। एक दिन यही तप तुम्हें मोक्ष- मार्ग पर लाकर खड़ा कर देगा।

साभार : व्हाट्सएप्प ग्रुप से श्री विकास धाकड़ द्वारा प्राप्त

रविवार, दिसंबर 29, 2019

टोडरमल जैन की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की प्रेरणास्प्रद कहानी - डॉ अनेकांत कुमार जैन

2016 में महावीर जयंती के दिन मुझे पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में स्थित गुरु ग्रन्थ साहिब वर्ल्ड यूनिवर्सिटी में एक अन्ताराष्ट्रीय सम्मेलन में जैनदर्शन पर व्याख्यान देने हेतु जाने का अवसर प्राप्त हुआ| फतेहगढ़ साहिब पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिला का मुख्यालय है। यह जिला सिक्‍खों की श्रद्धा और विश्‍वास का प्रतीक है। 

पटियाला के उत्‍तर में स्थित यह स्‍थान ऐतिहासिक और धार्मिंक दृष्टि से बहुत महत्‍वपूर्ण है। सिक्‍खों के लिए इसका महत्‍व इस लिहाज से भी ज्‍यादा है कि यहीं पर गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों को सरहिंद के तत्‍कालीन फौजदार वजीर खान ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया था। उनका शहीदी दिवस आज भी यहां लोग पूरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। फतेहगढ़ साहिब जिला को यदि गुरुद्वारों का शहर कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यहां पर अनेक गुरुद्वारे हैं जिनमें से गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब का विशेष स्‍थान है। 

वहां के जागरूक शोधअध्येताओं ने मुझसे जैनदर्शन पर बहुत अभिरुचि प्रगट की ,वे मुझे वहां के उस प्रसिद्द गुरूद्वारे ले गए जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों पुत्रों को वहां के नवाब ने दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था | 

इसी सन्दर्भ में उन्होंने वहां के दीवान टोडरमल जैन की उदार दृष्टि की जो कथा सुनाई वह मुझे पता ही नहीं थी , उन्होंने बताया कि  -

तीन सौ वर्ष पहले सरहिंद में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो पुत्रों को दीवार में चिनवाने के बाद उनके व दादी मां के पार्थिव शरीरों को अंतिम संस्कार के लिए नवाब जगह नहीं दे रहा था , उसने शर्त रखी कि अंतिम संस्कार के लिए जितनी जगह चाहिए उतनी जगह स्वर्ण मुहरें बिछा दो , वहां के सुप्रसिद्ध नगर सेठ टोडरमल जैन ने यह जिम्मेदारी  अपने ऊपर ले ली, और स्वर्ण मुद्राएँ बिछा दीं , नवाब का लालच बढ़ गया और फिर उसने कहा कि स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके बिछाओ लिटा का नहीं, टोडरमल जी ने फिर भी शर्त मान ली और खड़ी स्वर्ण मोहरें बिछा दीं और अंतिम संस्कार हेतु जगह ली |

 नवाब से स्वर्ण मोहरें बिछाकर भूमि प्राप्त करने वाले दीवान टोडरमल जैन का नाम भी तीर्थ भूमि सरहिंद से जुड़ा है। सामाना में जन्मे व माता चक्रेश्वरी देवी के उपासक टोडरमल जैन जमीनी मामलों के जानकार होने के कारण सरहिंद के नवाब वजीर खां के दरबार में दीवान के पद पर असीन हुए। उन्होंने नवाब से सोने की मोहरों के बदले भूमि लेकर उन तीनों महान विभूतियों का स्वयं अंतिम संस्कार किया। उसी स्थान पर फतेहगढ़ साहिब में गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरूप बना हुआ है जिसके बेसमैंट का नाम सिख समाज ने स्मृति स्वरूप दीवान *टोडरमल जैन हाल* रखा है।
उसके बाद वे वहां स्थित जैन मंदिर ले गए जहाँ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ जी की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी का एकमात्र ऐतिहासिक प्राचीन मंदिर, सरहिंद शहर के चंडीगढ़ रोड पर स्थित है। यहां 12वीं सदी से लगातार माता जी के श्रद्धालु विशेषत: खंडेलवाल बंधु अपनी कुलदेवी के रूप में माता जी की पूजा-अर्चना के लिए आते रहे हैं।पास में ही तीर्थंकर आदिनाथ का एक सुन्दर श्वेताम्बर मंदिर भी है|

उन्होंने बताया कि12वीं शताब्दी में मारवाड़ में भीषण अकाल के कारण पंजाब की ओर लोगों ने पलायन किया। जैन खंडेलवाल परिवारों का एक जत्था कांगड़ा में विराजित भगवान ऋषभ देव के दर्शनों के लिए बढ़ रहा था जो सरहिंद में एक रात्रि के लिए रुका। अगली सुबह अधिष्ठात्री कुलदेवी की पूजन शिला वाली बैलगाड़ी आगे नहीं बढ़ी। दूसरी रात्रि भी वहीं रुकना पड़ा, तब आकाशवाणी सुनाई दी-मेरा स्थान आ गया है। मेरा भवन यहीं बनवाया जाए। भक्तों ने वहीं पर मंदिर बनवाया और स्वयं भी सरहिंद एवं पंजाब के अन्य शहरों में बस गए परन्तु सरहिंद में माता चक्रेश्वरी देवी के इस स्थान पर निरंतर आते रहे।

मैंने वहां देखा कि तीर्थ परिसर में विशाल धर्मशाला, विश्राम घर, खुले लॉन, भोजनशाला आदि की सुचारू व्यवस्था है। अपने गौरवपूर्ण व स्वर्णिम इतिहास तथा श्रद्धा का व्यापक आधार होने के कारण माता चक्रेश्वरी देवी के इस स्थान को अब अखिल भारतीय जैन तीर्थ होने का भी गौरव प्राप्त है।वहीँ दीवार पर बने टोडरमल जी के दो चित्र भी इस लेख के साथ संलग्न हैं |

इस पूरी कहानी से यह पता चलता है कि जैन समाज अपने से अन्य धर्म और धार्मिकों के प्रति कितनी उदार दृष्टि रखता आया है | जैनों द्वारा इस प्रकार की धार्मिक सहिष्णुता के हजारों किस्से हैं | आज सिर्फ आवश्यकता है उनके इन सार्वजनीन सार्वभौमिक कार्यों को उजागर करने की ,क्यों कि उदारता की एक परिभाषा अपने दान को उजागर नहीं करने की भी रही है ,शायद इसीलिए भी इस प्रकार की नज़ीर दुनिया के सामने नहीं आ पातीं । 

आज साम्प्रदायिक द्वेष के काँटों भरे पेड़ों को ज्यादा सींचने के दुर्भाग्यपूर्ण माहौल के बीच इस प्रकार के उदाहरणों को प्रेरणा एवं सामाजिक सौहार्द के लिए सामने रखना ज्यादा आवश्यक हो गया है । 

आप अपने विचार मुझे email भी कर सकते हैं ।

डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली 
drakjain2016@gmail.com

सोमवार, सितंबर 16, 2019

यह भी नहीं रहने वाला


एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।
आनंद ने साधू  की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।

साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की  - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"

साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला ।" साधू आनंद  की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया ।

दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है । पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । साधू आनंद से मिलने गया।

आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया । झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया । खाने के लिए सूखी रोटी दी । दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे । साधू कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"

आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज  आप क्यों दु:खी हो रहे है ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो ! यह भी नहीं रहने वाला।"

साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू  हूँ । सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।"

कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद  तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है ।  मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।

साधू ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया ।   भगवान्  करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"

यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज  ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"

साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला ?"

आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा । कुछ भी रहने वाला नहीं  है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"

आनंद  की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद  का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है ।

साधू कहता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"

साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"

साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद  ने अपनी तस्वीर  पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी  नहीं रहेगा* ।"

विचार करे 🙏

साभार : Whatsapp