रविवार, सितंबर 05, 2010
क्षमा
क्षमा - नर से नारायण, संसारी से शिव,
क्षमा - साधक से सिद्ध, दानव से मानव,
क्षमा - खुशहाली का खजाना है।
क्षमा - ही परम सुख है।
क्षमा - ही अंतिम सत्य है।
क्षमा - वीतराग धर्म की पगडंडी है।
क्षमा - सभी गुणों का दाता है।
क्षमा - जीवन में शांति-संतोष समता प्रदाता है।
क्षमा - धारण करने से दुःख-दर्द
क्षमा - सभी भेदभाव मिटाता है।
क्षमा - मोक्ष का दरवाजा है।
क्षमा - स्नेह की सरिता है।
क्षमा - मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी है।
क्षमा - आत्मा का आनंद है।
क्षमा - जीवन निर्माता है।
क्षमा - धर्म की जननी है।
क्षमा - में लक्ष्मी का भंडार है।
क्षमा - ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
मनुष्य को मनुष्यत्व का पाठ पढ़ाता है पर्यूषण पर्व
पर्यूषण पर्व बड़े भाग्य से प्राप्त होता हैं, पर्यूषण पर्व से एक ऐसी सूझ आती है, एक ऐसी सद्बुद्धि प्राप्त होती है जिससे हम आठ दिनों तक मोह-माया से विरक्त होकर अपनी अपनी कमियों को दूर कर सकते है तथा परमात्मा की भक्ति में लीन होकर संसार की असारता को भुल जाते है, यह पर्व हमारी धार्मिक प्रवृतियों को बढ़ावा देता हैं। निष्काम भक्ति वह होती है जिसमें कोई कामना न हो अगर हमारी भक्ति में स्वर्ग की कामना है तो भक्ति निष्काम नहीं हो सकती है, वह बंध गई। पर्यूषण पर्व की साधना निष्काम भक्ति का प्रतिक होती है, पर्यूषण भावनाओं के साथ तप-जपकर भक्त भगवान को रिझाने में सफल होते हैं। आठ दिनों के इस पर्व में मनुष्य, नियम, आसन, पाणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग जैसी साधना तप-जप के साथ कर मानव जीवन को सार्थक बनाता है। यह पर्व मनुष्य को मनुष्यत्व का पाठ बढ़ाता हैं। विश्व में आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अत्याचार, अधर्म बढ़ता जा रहा है, भाई-भाई के रक्त का प्यासा बनकर संस्कृति व संस्कारों की खिल्ली उड़ा रहा है, मानवता पसीज रही है, आज विश्व को भगवान महावीर की भांति जीते-जगते महापुरुष की जरुरत है जिन्होंने ‘क्षमा विरस्य भुषणम‘ का मंत्र देकर लोगों को अहिसा का पाठ पढ़ाया था। महान पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व में भगवान महावीर के इन्हीं कथनों को चरितार्थ कर दानव भी मानव बनने की कोशिश करता है पर्यूषण पर्व के आठवे दिन सवत्सरी का प्रतिक्रमण कर जिस सहद्धया से मन के वैर को भुलाकर एक मनुष्य दुसरे मनुष्य के प्रति प्रेम का इजहार करता है हकीकत मे पर्यूषण पर्व की महानता व महावीर के संदेश का स्वरुप देखने को मिलता है। पर्यूषण पर्व की आराधना मे जो व्यक्ति लीन हो जाता है, जप-तपकी साधना से, गुरुभगवंतो की निश्रा से मनुष्य तनावों से मुक्त होकर निखर जाता है। पर्यूषण पर्व की साधना से आराधक धर्मानिष्ठ बनकर समाज व धर्म की धरोहर बन जाता है यह पर्व क्षमा, मैत्री, बंधुत्व की भावना को प्रबल कर पारस्परिक प्रेम व सद्भावना का माहोल निर्मित करता हैं।
मानव की सोई हुई अन्तर्चेतना को जागृत करने, आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार, सामाजिक सद्भावना एवं सर्व धर्म समभाव के कथन को सम्बल देने पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व का आगमन होता है यह पर्व धर्म के साथ राष्ट्रीय एकता तथा मानव धर्म का पाठ पढ़ाता है यह पर्व हमे सिखाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की प्राप्ति में ज्ञान व भक्ति के साथ सद्भावना का होना अनिवार्य हैं। भगवान भक्त की भक्ति को देखता है उसकी अमीरी-गरीबी या सुख समृद्धि को नहीं भक्त अगर भगवान से प्रेम करे तो दुःख कभी आये ही नहीं इतनी सार्थक बातों का ज्ञान महान पर्यूषण पर्व देता है। जैन शासन का यह पर्व हर दृष्टीकोण से गर्व करने लायक है क्योंकि इस दरम्यान गुरु भगवंतो के मुखारविद से अमृतवाणी का श्रवण होता हैं जो हमारे जीवन में ज्ञान व धर्म के बिज बोता हैं। भौतिक संपत्ति से मानव का मन चंचल व अशांत हो जाता है। मनुष्य योनि में आकर भी जब व्यक्ति भौतिक सुखो के स्वार्थो में लिप्त रहे तो समझ लेना चाहिए उसका मानव जीवन निरर्थक व बेकार है जो मनुष्य भगवान महावीर के सिद्धांतो पर चलकर धर्म का रास्ता अख्तियार कर लेता है परमात्मा उसके हृदय रुपी मंदीर में समा जाता हैं। पर्यूषण पर्व परमात्मा को पाने का सरल मार्ग है। इसलिए इस पर्व पर दुनिया गर्व करती है और इस पर्व पर साधक साधना में रत होकर भौतिकता को त्याग कर त्याग की भावना से सराबोर हो जाता है। मन की कलुषिता को दफनाकर मैत्री-बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत होता है क्षमा के सार को आचार और विचार बना मानव इस पर्व से पवित्र बन जाता है। पर्यूषण पर्व की मधुर बेला में प्रेम, भक्ति, श्रद्धा, आस्था व धर्म की छल-छल धारा प्रवाहित होती है। साधना मे तर मनुष्य का मन शान्त, स्वच्छ, शीतल व निर्मल हो जाता है। पर्यूषण पर्व की पवित्रता से जनमन आच्छांदित होकर जगत का सम्पूर्ण कलमल मिटाने का संकल्प लेता है। वैमनस्य की भावना से मुक्त होकर व्यक्ति वैचारिक शक्तियों को प्रबल बनाकर पुरुसार्थ के कार्यों मे सलग्न हो जाता है।
सिर्फ रस्म अदायगी का नहीं, सौंदर्य को निखारने का महापर्व है क्षमापना
सही मायने में देखा जाये तो क्षमापना पर्व आज सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रहगया है, विरले ही होंगे, जो वास्तव में क्षमा याचना करते होंगे और क्षमादान देते होंगे, वरना आम तौर पर तो क्षमापना महापर्व के दिन भी कटुता और तुच्छ अहंकार का वातावरण स्पष्ट देखा जा सकता है। यह जगत् विदित तथ्य है कि जीवन में बहुत कम पल ऐसे आते हैं, जब व्यक्ति वास्तव में सर्वांग सुन्दर लगता है। मेरा मानना है कि पूरे समर्पण भाव के साथ क्षमापना करते हुए और सारी तुच्छताओं को त्याग कर क्षमादान करने की इन दो स्थितियों में ही इंसान सबसे सुंदर लगता है। बच्चे इतने सुंदर इसीलिए होते हैं क्योंकि उनमें कोई कुटिलता और तुच्छता नहीं होती, वे बिल्कुल निर्दोष लगते है। इसीलिए वे सुंदर होते हैं, मगर हमारे मन की कुरूपता हमें सुन्दर नहीं बनने देती। एक बार समर्पित होकर क्षमापर्व को हमें मनाने की जरूरत है। बहुत कम लोग इस बात को महसूस कर पाए होंगे कि क्षमा मांगने और देने में अहंकार और तुच्छता ये दोनों बुराईयां ही बाधक हैं। हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि किसी को भी माफ कर देना या क्षमा कर देना किसी भी धर्म में सर्वोपरि तत्व है, लेकिन फिर भी हमारा अहंकार किसी से क्षमा मांगने में आड़े आ जाता है, और हमारी तुच्छता किसी को क्षमा करने में बाधक साबित होती है। जिसमें दया है, करूणा है, किसी की भावनाओं को समझने की क्षमता है और जो उदार मन वाले हैं, वे ही किसी को क्षमा कर सकते हैं। अगर हम किसी को क्षमा नहीं कर पाएं, तो मान लीजिए कि हम तुच्छ हैं। हमसे अगर कोई भूल हो जाए, तो हमारा पहला प्रयास यही रहता है कि हमें क्षमादान मिल जाए, लेकिन अगर हमें क्षमादान न मिले तो हमारी क्या स्थिति होती है। अगले की तुच्छता की वजह से कितनी मानसिक यंत्रणा से हमें गुजरना पड़ता है। ठीक इसी तरह अगर हम क्षमा मांग पाएं, तो अपने अहंकार को टटोलिए, वह हावी होताहै, तभी हम्म नहीं मांग पाते हैं। पृथ्वी लोक के किसी भी धर्म और किसी भी संप्रदाय में क्षमा को सबसे महान बताया गया है। कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।
कुरान, बाईबल, रामायण सहित जैन धर्म के समस्त ग्रंथों में क्षमादान-महादान बताया गया है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविदसिह ने कहा था- क्षमा वही कर सकता है, जो शूरवीर हो। कायर व्यक्ति कभी किसी को क्षमा नहीं कर सकता। क्षमादान ही वीरों का आभूषण है। क्षमा वीरस्य भूषणम् वहीं से प्रचलित हुआ। कुरान में भी स्पष्ट लिखा है कि जो दूसरों को माफ कर देते हैं, अल्लाह भी उन्हें माफ कर देता है। लेकिन जो दूसरों को माफ नहीं करते, अल्लाह उनसे कैसे मोहब्बत कर पाएगा। ईसाई धर्म के प्रवर्तक यीशु मसीह तो जीवन की आखरी सांस के वक्त तक क्षमादान का परचम लहराते रहे। उन्हें जब लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके माथे, गले, हाथों और पैरों में क्रॉस पर चढ़ाकर कीलें ठोंकी जा रही थी, तब भी वे कह रहे थे-हे प्रभू इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। गीता, रामायण, महाभारत आदि हिन्दु शास्त्रों में भी क्षमादान को श्रेष्ठ दान और क्षमा याचना को श्रेष्ठ मांग माना गया है। भगवान महावीर के जियो और जीने दो सिद्धांत का क्षमा में ही निहितार्थ है। कोई भी जब तक अभय नहीं होगा, जी नहीं पाएगा। आप जानते ही हैं कि कोई भी क्षमा पाकर अभय हो जाता है। मतलब, हम क्षमादान देने के साथ ही अभयदान भी दे देते हैं। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्ण है, जिसमें क्षमापना को पर्व के रूप में मनाया जाता है। दरअसल, इस महापर्व की सार्थकता तभी पूरी होगी, जब हम सारे ही अहंकारों का त्याग करके स्वच्छ मन से सभी को क्षमादान सहित अभयदान दें। आप सभी को संपूर्ण समर्पण के साथ मेरा मिच्छामि दुक्कड़म्। आपसे एक विनती है कि मेरी यह क्षमा याचना स्वीकारने के तत्काल बाद एक बार आप अपना चेहरा आईने में अवश्य निहारें, अपना दावा है कि आप खुद को बहुत ही सुंदर पाएंगे, इतना सुंदर कि पहले कभी नहीं देखा होगा।
आत्म शोधन का महापर्व है पर्युषण
पर्यूषण महापर्व आठ दिनों तक मनाया जानेवाला आध्यत्मिक पर्व है। हमारी संस्कृति में आठ की संख्या का बड़ा महत्व है - अष्ट मंगल, अष्ट कर्म, अष्ट सिद्धि, अष्ट बुद्धि, अष्ट प्रवचन माता आदि। अतः पर्यूषण महापर्व भी अष्ट दिवसीय होता हैं। नदियों में गंगा, शत्रुंजय तिर्थों में, पर्वतों में सुमेरु, मंत्रों में नवकार, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में उत्तमहंस, कुल में ऋषभदेव - वंश, तप में मुनियों का तप, उसी प्रकार पर्वों में पर्यूषण पर्व सर्वश्रेष्ठ है। अतः यह महापर्व कहलाता हैं। यद्यपि जैन धर्म के सभी पर्व महत्वपूर्ण हैं, परन्तु पर्वाधिराज का पद तो पर्यूषण पर्व को ही दिया गया है। पर्यूषण पर्व हमको मोह निद्रा में से जगाता है। पर्यूषण के आरंभ के सात दिवस साधना के होते है एवं अंतिम संवत्सरी का दिवस सिद्धि का दिवस है। यह महापर्व मनुष्य को सचेत करनेवाला एवं मोक्ष प्राप्त करानेवाला हैं। यदि ऐसे पवित्र पर्व में भी मोक्ष का प्रामाणिक प्रयत्न करने से चूक गए तो मनुष्य - जन्म व्यर्थ चला जायेगा। पर्यूषण पर्व प्रायश्चित का पुनित अवसर है।
मोह, माया, राग, द्वेष एवं आशक्तियां मनुष्य को जाने-अनजाने पापकर्म के लिए प्रवृत्त करती है। अध्यात्म पर्व हमको इनमें से अनावृत्त होने की प्रेरणा देता हैं। जीव मात्र के प्रति मैत्रीभाव एवं करुणा भाव द्वारा हृदय को निर्मल बनाने की भावना प्राप्त करने की प्रेरणा ऐसे अध्यातम पर्व प्रदान करते हैं। पर्यूषण ऐसे अध्यात्म पर्व प्रदान करते हैं। पर्यूषण को पर्वाधिराज या महापर्व इसलिए कहा जाता है कि इस पर्व की दृष्टी अध्यात्मोन्मुखी है। इस पर्व में विशुद्ध आत्मभाव-वीतराग भाव की साधना की जाती हैं। पर्यूषण पर्व का मुख्य ध्येय और लक्ष्य यही है कि आत्मा को पवित्र बनाकर उसमें सद्गुणों का बाग लगाना। मानव शरीर मात्र ही नही है, किन्तु आत्मा है। शरीर तो आत्मा के ऊपर लिबास मात्र है। आत्मा को पवित्र करना ही मानव जीवन का सार हैं। वस्तुतः पर्यूषण पर्व का प्रायोजन आत्मा को निर्मल और स्वाधीन बनाना हैं। मन और बुद्धि को अहंकार, ममकार, काम, क्रोध, मोह आदि की मलिनता से हटाकर उन्हे परिमार्जित करके पुनः अपने लक्ष्य की ओर, आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति की ओर लगान हैं, अपनी आत्मा की उन्नति करनी हैं। इस प्रकार आत्मशुद्धि के साथ-साथ अपने आत्मिक विकास एवं आत्मोन्नति का सही लेखा - जोखा करना इस पर्व का उद्देश्य हैं। यह पर्व मनाया ही इसलिए जाता है कि आत्म - जागरण हो, आत्म - स्फुरणा हो। यह आत्म जागृति का पर्व हैं। इसलिए जैन जगत में इसका अत्याधिक महत्व हैं। साथ ही यह विश्व मैत्री का प्रेरक होने से संसार का एक मात्र अनूठा पर्व है।
पर्यूषण पर्व अष्टान्हिका महोत्सव क्यों?
पर्युषण शब्द की परिभाषा व व्याख्या विभिन्न आचार्यों, साधु-साध्वियों ने विभिन्न विभिन्न रुप से की है। पर्युषण शब्द का सन्धि-विच्छेद करते हुए परि*उषण। परि का मतलब होता है चारों ओर से, सब तरफ से तथा उषण का अर्थ है दाह। जिस पर्व में कर्मों का दाह। विनाश किया जाये वह पर्यूषण शब्द के पर्यायवाची १) पज्जुसणा २) पज्जोसमणा ३) पज्जोसवणा ४) परिजुसणा ५) परिवजणा ६) पज्जुवासणा ७) परियाय ठवणा ८) पज्जूसण । पर्यूषण पर्व जैन धर्म का महान पर्व है। इस महान पर्व में सभी जैन श्रावक-श्राविकाएंं छोटे-छोटे बच्चे भी तपश्चर्या, व्रत, जप, आराधना करते हैं। अपने शरीर, मन, आत्मा को शुद्ध करने का महान पर्व पर्युषण पर्व है। संवत्सरी के दिन प्रतिक्रमण कर अपने व्यवहार, कर्म, बोलचाल आदि से हुई। असातना गलतियों के लिए प्राणीमात्र से क्षमा याचना करते हैं। पर्यूषण पर्व आठ दिन का होता है, इसलिए इसे आष्टान्हिक पर्व भी कहा गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि जैन धर्म का यह प्रमुख पर्व पर्युषण महापर्व आठ दिनों का ही क्यों निर्धारित किया गया है।
सात, नौ या अन्य दिनों का क्यों नहीं तो उसका उत्तर है कि- हमारी आत्मा के आठ प्रमाद है।
१) अज्ञान
२) संशय
३) मिथ्या ज्ञान
४) राग
५) द्वेष
६) स्मृति (स्मृति-भ्रंश)
७) धर्म-अनादर,
८) योग
दुष्परिणाम। में फंसी हुई आठ मद
१) जाति
२) कुल
३) बल
४) रुप
५) तप
६) लाभ
७) श्रुत
८) ऐश्वर्य,
ऐश्वर्य के कारण ८ कर्म -
१) ज्ञानावरणीय
२) दर्शनावरणीय
3) वेदनीय
४) मोहनीय
५) आयु
६) नाम
७) गौत्र
८) अनाराम- से आवृत्त होकर अपनी सच्ची अलौकिक शक्ति तथा ज्ञान को खोती चली जा रही है।
जब तक हर मानव आठो प्रमादों, मद और कर्म से स्वयं को परे नहीं रखेगा, इनका त्याग नहीं करेगा, तब तक उसे सच्चा ज्ञान और सच्चा दर्शन होना दुर्लभ है। इसीलिए पर्यूषण महापर्व क्रमशः इन्हीं आठ विकारों से आत्मा को परिमुक्त करने हेतु आठ दिन तक मनाया जाता है। आठ विकारों के नाश के पश्चात् ही आठ आत्मगुण - १) अनन्त ज्ञान २) अनन्त दर्शन ३) अनन्त सुख ४) अनन्त चरित्र ५) अटल अवगाहन ६) अमूर्तिक ७) अगुरु लघु ८) अनन्त बलवीर्य की प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययन सूत्र ११ (४-५) में आठ बातें बतलायी गयी है, जिनका यदि पर्यूषण पर्व में अभ्यास किया जाए तो जीवन में नया प्रकाश व नई चेतना की स्फूरणा हो सकती है।
१) शांति
२) इन्द्रिय दमन
३) स्वदोष दृष्टि
४) सदाचार
५) ब्रह्मचर्य
६) अलो लुप्ता
७) अक्रोध
८) सत्याग्रह।
आठ विकारों को नाश करने के लिए आठ शिक्षाएं आठ शील के गुम, आठ प्रवचन माता की आज्ञा से देव, गुरु, धर्म एवं ५ व्रत इन आठ का श्रद्धापूर्वक आचरण करने के लिए अरिहन्तसिद्ध आचार्य उपाध्याय-साधु साध्वी श्रावक और श्राविका। इन ८ पदों की निकट सम्फता सम्यकत्व के ८ आचारों का निर्दोष पालन और आचार्य की ८ संपदाओं के स्मरण के रूप में इन ८ दिनों का महत्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। प्राचीन काल में ८ दिन के उत्सव होते थे तथा किसी भी शुभ कार्य में ८ का योग होना अच्छा मानते थे। मंगल आठ माने गए हैं। सिद्ध भगवान के भी ८ गुण बताए हैं। साधु की प्रवचन माता आठ है। संयम के भी आठ भेद बताए गए हैं। योग के ८ अंग हैं। आत्मा के रूचक प्रदेश भी आठ हैं। इस प्रकार आठ की गणना बड़ी महत्वपूर्ण रही है। वर्ष भर में सांसारिक निजी प्रपंचों में उलझे मानव को पर्यूषण महापर्व के आठ दिनों में तो तप आराधना कर आठ विकारों का नाश कर आठ गुणों को प्राप्त करने का प्रयास कर मानव जीवन सफल सार्थक बनाने हेतु त्याग-तपस्या करनी चाहिए।