रविवार, मई 09, 2010

आचार्य महाप्रज्ञ ने देह त्यागी

जैन समाज के ख्यात संत आचार्य महाप्रज्ञ का रविवार को राजस्थान के चुरु शहर के सरदार शहर में दोपहर 2.52 बजे निधन हो गया। वे इनदिनों में चातुर्मास पर थे। आचार्य महाप्रज्ञ ने दोपहर दो बजे तक श्रद्वालुओं को दर्शन दिया। उसके बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। डॉक्टरों को बुलाया गया, लेकिन उन्होंने शरीर त्याग दिया। उनके निधन की खबर से देश-विदेश में शोक की लहर दौड़ गई है।

जन्म : आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म विक्रम संवत 1977 (1920) में आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के झुंझुनू के टमकोर के चोरड़िया परिवार में हुआ था। पिता का नाम तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। आपका जन्म नाम नथमल था। बचपन में ही पिताश्री का देहांत हो जाने के कारण माताजी ने ही पालन-पोषण किया। माता धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं इसी कारण उनमें धार्मिक चेतना का उदय हुआ।

दीक्षा : आपने 29 जनवरी 1929 अर्थात विक्रम संवत 1987 के माघ शुक्ल की दशमी को सरदार शहर में नथमल ने अपनी माता के साथ संत श्रीमद कालूगणी से दस वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात्य उनकी पहचान धीरे-धीरे मुनि नथमल के रूप में होने लगी।

आचार्य तुलसी : आपने श्रीमद कालूगणी की आज्ञा के चलते मुनि आचार्य तुलसी को गुरु बनाया और उन्हीं के सानिध्य में रहकर विद्या अध्ययन किया। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर प्रज्ञासागरजी की पकड़ न हो।

गहन अध्ययन : जैनागमों के अध्ययन के साथ आपने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का अध्ययन किया है। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार है। वे संस्कृत भाषा के सफल आशु कवि भी है। आपने संस्कृत भाषा के सर्वाधिक कठिन छंद 'रत्रग्धरा' में 'घटिका यंत्र' विषय पर आशु कविता के रूप में श्लोक बनाकर प्रस्तुत किए।संस्कृत भाषा में संबोधि, अश्रुवीणा, मुकुलम्, अतुला-तुला आदि तथा हिन्दी भाषा में 'ऋषभायण' कविता को आपके प्रमुख ग्रंथ माने जाते हैं। आपने जैन आगम, बौद्ध ग्रंथों, वैदिक ग्रंथों तथा प्राचीन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है। जैनों के सबसे प्राचीन एवं अबोधगम्य 'आचारांग सूत्र' पर संस्कृत भाषा में भाष्य लिखकर आचार्य महाप्रज्ञ ने प्राचीन परंपरा को पुनरुज्जीवित किया है। आपके विभिन्न विषयों पर लगभग 150 ग्रंथ है।

महाप्रज्ञ की उपाधि : आचार्यश्री तुलसी ने महाप्रज्ञ जी को 1144 में अग्रगण्य एवं ईस्वी सन् 1965 विक्रम संवत 2022 माद्य शुक्ला सप्तमी को हिंसार (हरियाणा) में निकाय सचिव नियुक्त किया। उनकी अंतः प्रज्ञा व गहन ज्ञान से प्रभावित होकर गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया।

आचार्य पद : विक्रम संवत 2035 राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। विक्रम संवत 2050 सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी उपस्थिति में अपने आचार्य पद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।

अन्य उपलब्धियाँ : 23 अक्टूबर 1999 को नीदरलैड इंटर कल्चरल ओपन युनिवर्सिटी ने साहित्य के लिए डी.लिट् उपाधि से सम्मानित किया। मानवता के क्षेत्र में महाप्रज्ञ की अनगिनत एवं उल्लेखनीय सेवाओं एवं योगदानों के संदर्भ में उन्हें युगप्राधान पद से सम्मानित किया गया। यह पद उन्हें 1995 में दिया गया।

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